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विचार शून्यता की अवस्था प्राप्त करना बड़ा कठिन है, ध्यान में उतरने और शून्यता को महसूसने के अनुभव को लिपिबद्ध करने की एक कोशिश का परिणाम है यह कविता ........

शून्य की खोज अंधकार कोहरा स्याही तिमिर आच्छादित है इस अंतस का आसमान और पाताल कोई ओर-छोड़ नहीं एक बेचैनी एक छटपटाहट उससे बाहर निकलने की एक कोशिश प्रयत्न , प्रयत्न और प्रयत्न शरीर का अणु-अणु इस प्रयत्न में शामिल लेकिन लगती है हाथ सिर्फ असफलता ध्यान बार-बार अपने शरीर और आसपास पर ही अटका है सर को एक झटका दे  अपने अंदर झांकने की एक और कोशिश  चारों ओर सिर्फ अंधेरा और अंधेरे की कई आभाएँ   कुछ लकीरें जो इन अंधेरों से टकराती हैं स्याही का एक गुब्बार आता है फिर दूसरा , तीसरा और गुजर जाता एक दुसरे में सब गड्ड-मड्ड फिर दिखता है हल्का प्रकाश जिसे ये अंधेरे अपने चारों ओर से दबोच एक बिंदु में बदल देते हैं फिर प्रकाश का दूसरा गोला और उसका छोटा होता जाना फिर प्रकाश के कई गोले और सबका छोटा होता जाना फिर दिखती है हल्की प्रकाश की एक अनवरत झलक और उसका तीव्रतर होता जाना प्रकाश , प्रकाश और प्रकाश जैसे एक साथ कई सूर्य उदित हुआ हो अजस्र उर्जा का बहाव डर सा लगता है कहीं कोई विस्फोट न हो जाये इस सब के बीच ध्यान आता है शरीर का व

आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता, आतंक ही उनका धर्म है | आग से ठंडक की आशा एक छलावा है कुछ लोग इस छलावा के शिकार हैं और अपने दामन को जला बैठते हैं | आज पाकिस्तान में जेहाद के नाम पर ऐसा ही कुछ हो रहा है | अब भी चेतने की जरुरत है | बहरहाल तो उन मासूमों को श्रधांजलि जो आतंकवादियों की भेंट चढ़ गये ..........

घर का चिराग गुल हो गया  है  जिनका तमाम उम्र अब रहेगा   इंतजार उनका अब न आयेंगे वे नन्हें फरिश्ते दुबारा घर में जो थे लख्ते जिगर,  नजर के नूर अपनों के क्या बिगाड़ा था अमन के दुश्मन तेरा इन बच्चों ने क्यों किया  दुनिया ए तवारीख  का वरक गंदा तुमने किसकी गवाही कौन सी तद्बीर सही ठहरायेगी तुम्हें  दहशतगर्दों ताउम्र  मांगने से भी मौत न आयेगी तुम्हें | 

हर व्यक्ति को जिंदगी में कुछ इंसान ऐसे जरूर मिलते हैं जिन्हें समझना उसके लिए कठिन होता है, ऐसे ही एक इंसान को समझने की मेरी कोशिश.......

हमसफर थोडे जुल्मी हो थोड़े बेरहम से हो , क्या कहूँ कि कैसे हो तूझे समझ न पाई अब तक कहने को तो हमसफर हो | पत्थर सा सख्त दिल तेरा , कभी तुझसे टकड़ा सर फोड़ूँ कभी फिसल ही जाऊँ ऐसे  मक्खन से नरम तुम हों | तेरे ताने छलनी कर जाते ,   तेरी बातें हैं कड़वी लगती पलभर में फिर क्यों लगता, ज्यों मिसरी की डली तुम हो | मुझसे कुछ लेना न देना , कुछ ऐसे बेपरवाह बनते हो मैं दूर अगर हूँ फिर क्यों,   बेचैन तुम हो  जाते हो | कभी बन कृपण मुझको तुम , दुनियादारी सिखलाते हो कभी किसी अजाने मानुष पर , अपना सर्वस्व लुटाते हो | बहुत सोचा बहुत विचारा , पर तह तक पहुँच न पाई किस मिट्टी से बने तुम हो ,  मानव हो या  फरिस्ता हो |      

जब हम उदास होते हैं तो प्रकृति की सुंदरता को भी नकारात्मक रुप में ग्रहण करते हैं , इसी मानसिकता को उकेरती एक कविता प्रस्तुत है........

मौसम क्या सचमुच बदलता है ? नदिया के जल पर नृत्‍य करती सूरज की किरणें वैश्या सी अपनी चाँदी के घुंघरू चमकाती अठखेलियाँ करती सब को रीझा रही है पेड़ों पर बैठी चिड़िया की चिंतातुर स्वरलहरी वातावरण को गमगीन बना रही है घान की कटाई के बाद खेतों में पड़े घान के ठूँठ  अपनी जवानी को याद कर रोते नजर आ रहे हैं  दूर -दूर तक सिर्फ  ऊसर जमीन  कड़ी घूप में झूलसते खड़े पेड़  आसमान का नीलापन जैसे कुछ कम हो गया है घूसर मिट्टी का रंग कुछ अधिक धूसर हो गया है दूर कहीं एक चरवाहा अपने मवेशियों संग निर्गुण का राग अलापता भटक रहा है मेरी नजरें भटक रहीं हैं छत की मुंडेर से बाहर ढ़ूंढ़ने के अपने अथक प्रयासों में एक भी ऐसा दृश्य जो मन को बहला दे सब कुछ इतना फीका क्यों है ? मौसम क्या सचमुच बदलता है ! या यह घटना  सिर्फ हमारे अंदर घटती है !

चाँद खिलौना

चाँद खिलौना लाकर दूँगी मैं अपने मुन्ने  राजा  को ।       कभी तुम्हारा मामा बनकर       वह कन्धे पर तुम्हें बिठायेगा       कभी तुम्हारी ऊँगली  पकड़       चाकलेट, टाफी  दिलवायेगा चाँद खिलौना लाकर दूँगी मैं  अपने  मुन्ने राजा  को ।        कभी लुढ़क कर आसमान से        वह  गेंद  तेरा  बन  जायेगा        कभी चाँदी की थाली बनकर        मीठी  सी  खीर  खिलायेगा चाँद खिलौना लाकर दूँगी मैं अपने मुन्ने राजा  को  ।        कभी चाँद की चाँदनिया        थपकी  देकर  सुलायेगी        कभी मीठी सी लोरी गाकर        मुन्ने का दिल बहलायेगी चाँद खिलौना लाकर दूँगी मैं अपने मुन्ने  राजा  को ।        लोरी सुनते - सुनते मुन्ना        जब गहरी निंद सो जायेगा         चँदा मामा सपने में आकर        परीलोक की सैर करायेगा चाँद खिलौना ला कर दूँगी मैं  अपने  मुन्ने राजा  को ।

जब भी ये शाम घिर के आती है

जब भी ये शाम घिर के आती है  जब भी ये शाम घिर के आती है कोई मेरे इर्द गिर्द  आ जाती है शाम के फीके, उदास मंजर को अपने हाथों से सहला  जाती है । समेट कर मुझको अपने पहलू में अंधेरे साये से निकाल लाती है फुसफुसाती है वह मेरे कानों में कुछ  अस्फुट सा कह जाती है । कौन है वह जो मेरे पूजा घर में आशा की लौ सी जला जाती है करूं कितनी भी कोशिश फिरभी कोई पहचान नहीं निकल पाती है । मैं अपनी इस कल्पना की देवी को मन के  मंदिर में कैद   कर लूँगा  बेदर्द जमाना भले ही कहता  रहे हाय दीवाने की कैसी बुतपरस्ती है | 

जिंदगी एक रवानी

जिंदगी चलते जाने का  नाम  है  / रुक जाना तो मौत का पैगाम है  / बहता नीर ही नदिया कहलाता  है  / ठहर गया तो वो डबरा हो जाता है  / कर कुछ ऐसा दुनिया तुमको याद करे  / राह बना अपनी खुद उस पर बढ़ता जा  / यूं तो राहें तेरी  अकेले भी कट जायेंगी  / साथ किसी का हो तो आसां हो जायेगी  / बना किसी को हमराही  तू चलता  जा  / जीवन की खूबसूरती का तू लुफ्त उठा  / छोटा सा ही सफर है इस जिंदगानी का  / किस लफड़े में पड़ा है यारा होश में आ ।

हर कामकाजी व्यक्ति अपने जीवन में कभी न कभी आलस्य और प्रमाद से जूझता ही है , इसी आलस्य और जीवनक्रम को वाणी देने की एक कोशिश......

जीवन की छाँव-धूप भोर का धुंधलका नींद से लरजती आँखें आलस्य से भरमाया शरीर पोर-पोर में मीठा-मीठा दर्द थोड़ी देर लिहाफ में और पड़े रहने का सुख तलाशाता यह मन काम पर जाने न जाने की कसमकस अलार्म की ट्रिन्ग-ट्रिन्ग सुनना जीवन की सबसे कर्कश ध्वनि   अपनी इच्छाशक्ति को समेटने की जद्दोजहद फिर शरीर के बोझ को धरती पर उतारने की कोशिश चाय से उठती हल्की-हल्की भाप फिर थोड़ी ताजगी का आभास स्नान और ध्यान के बाद महसूस करती हूँ अपने भीतर सूर्योदय होने का एहसास ठंडी हवा का झोंका जब चेहरे को स्पर्श करता है समूचे शरीर में स्फूर्ती भर जाती है आँखें बंद कर तुलसी में जल डालते ही पाती हूँ अपने चारों ओर हजारों सूर्यों का प्रकाश अहोभाव से हाथ जुड़ जाते हैं अस्तित्व को देते हुए धन्यवाद एक नई सुबह एक नये दिन के लिए जहाँ साबित करनी है अपनी कर्मठता और निभाना है अपने जीवित रहने का धर्म झोला उठा कर चल पड़ती हूँ अपनी कर्मभूमि की ओर तत्काल जीवंत , उत्साहन्वित , उर्जान्वित |   

छठ के पवित्र अवसर पर सूर्यदेव को अर्घ्य स्वरूप समर्पित मेरी यह कविता........

सूर्योपासना हे मार्तण्ड , आप अनंत उर्जा के स्रोत हो इस तेजोमय उर्जा के एकांश से हमें आप्लावित करो | हे दिवाकर , आप दिव्य प्रकाश के पुंज हो इस प्रकाश से हमारे अंतस के अंधेरे को दूर करो | हे आदित्य , आप ही इस ब्रह्मांड के आदि और अंत हो इस क्षणभंगुर जीवन को शाश्वत के दर्शन करा दो | हे दीनानाथ , आप ही दीन-हीन के रक्षक हो इस दुनिया के दुःख दूर कर उसका मंगल करो | हे भानू , आप तेजस्वी और ज्योतिर्मय हो इस ज्योति से संसार के अमंगलकारी विध्नों को दूर करो | हे पूषण , आप ही धरती के सुख-समृद्धि के मूल हो इस पोषक रुप से हम निर्बलों और निर्धनों को पोषित करो | हे उदयाचलगामी आप का उदय जीवनदायनी है इस जीवन को परहितार्थ जीने का आशीर्वाद दे दो | हे अदिति सूत , आप ही हर जीव और वनस्पति के प्राण हो इस प्राण को दिव्यात्मा से मिलाकर अमरात्मा बना दो | हे भास्कर , आप  अदभूत रश्मियों से युक्त हो इस स्वर्णिम किरणों से हम सूर्योपासकों का कल्याण करो |  

दीपावली में जिनके अपने उनके पास नहीं पहुँच पाये उनकी यादों को समर्पित मेरी यह कविता......

बहुत मस्ती की सबने  इस बार दिवाली  में  खुब दीये जलाये  फोड़े बम  और  पटाखे  हैं | धुँआ तो  फैल गया अब  बताओ  करें  क्या  साँस  लगी फुलने  और दम घुटने  लगे  हैं |  रंगोली हमने सजाई आतिशबाजियाँ भी  की हुआ क्या जो मावा-मिठाईयाँ थोड़े बिषैले हैं । दीपमालायें सजी हैं , रंगीन फानूस और तोरण हैं हमें करना क्या गर दूसरों के घर में छाये अंधेरे हैं । गाँव में सब त्योहार के अवसर पर कर रहे इंतजार हम जायें क्यों , यहाँ मस्ती है, मजा है, ठिठोले हैं |   दूसरों को ठग  कर कुछ ने घी के दीपक जलाये हैं ‌कुछ बेईमानी कर नहीं सकते, कुछ के जमीर सोये हैं |  एक बेटी को छोड़ कितने आये गये इस दिवाली में  माँ की आँखें  ढुँढती  हैं  उसे  और  किनारे  गीले  हैं | 

हम आँख वाले नहीं समझ पाते की दृष्टी की नेमत क्या चीज होती है? न तो हम कभी प्रकृति को इसके लिए धन्यवाद देते हैं न अपने सौभाग्य को सराह पाते हैं | इस कविता में कुछ न कुछ तो ऐसा ही मिलेगा आपको |

आँखें बहुत आशा से कहा था ससुर जी ने ‘ चलिए तनि दिखा दिजीए न डाक्टर से ’ जब से गाँव से आए हैं अब बहुत कम दिखाई देता है उन्हें   अपना काम कर लेते हैं परंतु पढ़ नहीं पाते चुपचाप बैठे-बैठे    कुछ गुनते रहते हैं   दृष्टि पटल हो गई है सूनी दूर आकाश में कुछ ढूँढ़ने की कोशिश लगातार पिछले साल तक पढ़ लेते थे प्रेमचंद की कहानियाँ या भागवत की कथाएँ मन लग जाता था उनका अब कुछ नहीं पढ़ पाते आशा लगा रखी है डाक्टर कुछ ऐसी दवा देगा कि हो जाऐगी नजर ठीक रात दिन करते हैं प्रार्थना हे देव मेरी दृष्टी वापस कर दो   कैसे बाताऊँ उन्हें डाक्टर ने दे दिया है जबाब काँचबिंदु है एक आँख में दुसरी पूरी तरह से खराब हो चुकी है चश्मा भी अब काम नहीं आएगा कैसे कहूँ उन्हें ईलाज के बाबजूद भी अब कोई चमत्कार ही नजर की रोशनी लौटायेगा    जीवन भर किया अब नहीं करती उनसे परदा परदे की जरुरत नहीं रही शायद   पर्दे की जरुरत तो है वहाँ जहाँ आँखें होतीं हैं अब जब आँखें ही नहीं तो परदा कैसा   हम हैं कितने नादान पूछते हैं उनसे नेग तो आपने दे दिया ये तो बताईय

हम सब को कभी न कभी या तो परीक्षार्थी के रुप में या फिर एक निरीक्षक के रुप में परीक्षा भवन का अनुभव अवश्य है , मैं ने उसी परिदृश्य को उकेरने की कोशिश की है इस कविता में

परीक्षा भवन एक शांति स्थल , एक मौन वातावरण , कोई झुक कर लिखता तो सर नहीं उठाता ,   कोई छत को निहारता बार-बार सर को खुजाता ,   कोई नाखून को दाँतों से कुतरता , कोई लिख-लिख कर थक गये हाथों को झकझोरता ,   कोई बार-बार प्रश्नपत्र को पढ़ता ,   कोई लिखता फिर बुद्बुदाता , कोई निरीक्षक को बार बार देखता,     कोई खिड़की के बाहर खुले आसमान को निहारता  |  अजीब सी यह दुनियाँ है जहाँ तीन घंटे के लिए समय किसी के लिए ठहर सा गया है तो किसी के लिए पंख लगा कर उड़ा जा रहा है , कोई होठों को काटता , कोई कनखी से दोस्तों को देखता , कोई लड़की बार बार लटों को संवारती , कोई लड़का बेवजह बैठा मुस्कुराता , कोई गालों पर हाथ रख सोच में डूबा , कोई मेज पर ही सो रहा उत्तरपुस्तिका समेटा , कोई बार बार घड़ी को रहा देख , कोई बहुत जल्दीबाजी में , कोई नितांत स्थिर और शांत,  किसी को प्रश्न छूटने का डर , तो कोई कक्षा से बाहर जाने को आतुर , शिक्षकों के लिए बड़ा ही परिचित परिदृश्य ,   जल्दी समय न कटने का चेहरे पर  उकताहट और खीज ,   साल भर की मेहनत अब तो रंग लायेगी ,