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चाह की कोइ सीमा नहीं , मैं क्या - क्या चाहती हूँ एक कविता के रुप में......

              मैं चाहती हूँ   मैं चाहती हूँ लौट जाना अपने बचपन में जहाँ है मेरी माँ ढ़ेर सारा प्यार आँखों में लिए ,   मेरी राह तकती | मैं चाहती हूँ नील कमलों को चुन एक बेनी बनाना और टाँकना अपने बालों में ,  अप्सराओं सी | मैं चाहती हूँ नदियों संग उतरना पहाड़ों से और झरना बन ,   छींटे उड़ाना दूर तक | मैं चाहती हूँ आकाशगंगा में तिरना इंद्रधनुष की नाव में बैठ कर , ब्रह्मांड के अंत तक  | मैं चाहती हूँ गंधराज की खुशबू बन ,  उड़ जाना चारों दिशाओं में ,   तितलियों के संग संग | मैं चाहती हूँ भूखों की रोटी और प्यासों के लिए ठंडा जल बन , हो जाना उनकी तृप्ति | मैं चाहती हूँ ,   सुनना उस अनहद निनाद को जो कहते हैं गूँजता है अहर्निश चारों दिशाओं में | मैं चाहती हूँ ,    शरीर के दुःख , पीड़ा , बंधनों से मुक्त होना और जीना सिर्फ आत्मा के सहारे | क्या मेरा चाहना कुछ अधिक है ?

मिलन

          मिलन अकेलापन एक संताप एक तकलीफ एक टीस जो चुभती है एक ऐसी सहेली जो साथ नहीं छोड़ती | थक गई हूँ इसे ढोते-ढोते अब सहा नहीं जाता काश ! यह अकेलापन इतना घनीभूत हो जाए कि जाऊँ मैं पिघल मेरा रेशा-रेशा भाप बन कर विलिन हो जाए इस ब्रह्मांड में मेरा जर्रा-जर्रा बिखड़ जाए ऐसे कि मैं मिल जाऊँ इस संपूर्ण सृष्टि में मेरा ‘ मैं ’ तिरोहित हो जाए सदा के लिए और मेरा अस्तित्व ही न बचे क्या कभी होगा यह मिलन ? कैसा होगा यह मिलन ? हाँ यह मिलन ही अकेलेपन से मुक्ति है उस अरुप ब्रह्म से मिलन शाश्वत का दर्शन |

मौसम के अनुकूल मेरा यह प्रयास |

                                      गर्मी का मौसम आसमान से लपटें उठती , आग उगलती धरती है    रोम-रोम है झुलसा जाता , बहुत सताती गर्मी  है   |                  चिलचिल करती धूप है जलती ,   नहीं  दूर तक पानी है पशु-पखेरु बेहाल हो रहे , इस मौसम की  कैसी बेरहमी है सूखे  घाट , नदी-नाले हैं सूखे , कहीं  नहीं  हरियाली  है गले की प्यास बुझ नहीं पाती , गजब सी त्रास तूफानी है टप-टप पसीना चूता दिनभर , एसी-कूलर की मारा-मारी है हवा में तपन है ,   वदन है  ठंड़ा , कितनी बड़ी हैरानी  है सड़क है सूनी , गलियाँ सूनी , फैली चारों ओर वीरानी  है घर के अंदर बंद हो रहे सब , कहीं  ना  आवाजाही   है नहीं-नहीं यह शहर नहीं है , यह दृश्य तो रेगिस्तानी है |

जिंदगी सदा मेरे लिए एक अबूझ पहेली रही है,इस पहेली को एक कविता के रुप में बूझने की कोशिश.

अबूझ पहेली कैसी अबूझ पहेली है यह जिंदगी कितना मुश्किल , समझ पाना इसे  कभी लगता है सबकुछ है अपने हाथ में , जैसे चाहें समय को मोड़ लें , अपने पुरुषार्थ पर होता है गर्व , अपनी कर्मठता पर विश्वास , लेकिन दूसरे ही पल जैसे सब कुछ हाथ से फिसल जाता है | कुछ भी तो नहीं अपने हाथ में अपने साथ में हमारे चाहे कुछ नहीं बदलता सब दैव अधिन है , सुख-दुख की आँख-मिचौली खत्म ही नहीं होती | गया वक्त पारे सा ढलक गया आने वाला  वक्त भी क्या सूखे पत्तों सा बिखड़ जायेगा ? क्या करुँ कि कुछ बंध जाये ऐसे आँचल में जो रहे हमेशा साथ और दिलाये स्वयं की सम्पूर्णता का एहसास क्या करेगा कोई मेरी मदद यह बताने में |

बेटियों के लिये मेरे मन में जो एहसास है, उसे शब्दों की माला में पिरोने की एक कोशिश.........

            बेटी एक सपन सलोना बेटियाँ  हैं    भिंगी   बयार ,   बेटियाँ  हैं    ठंडी   फुहार बेटी के आ जाने से , जीवन में आ जाती है बहार बेटी को जन्म देना , एक सपन सलोना होता  है |                 अभी तक कहाँ भूला वो नवजात शीशु का उनींदा चेहरा                 वो शरीर की गर्महट और आंचल में भर लेने का  सुख                 बेटी के बड़ी होते ही सबकुछ भूल-भूल जाना होता  है | याद  है  मुझे  तेरा  मचलना , रूठना  और  रोना फिर  चुप  हो ,  देर  तक हिचकी  लेना निंद  में कितनी भी हो प्यारी बेटी , जूदाई सहना ही होता है |                कानों में गूंजती है , छोटी सी पायल की रुनझुन                वो  गुड़ीया ,   वो घरौंदा ,   वो  लोरी ,   वो  झूले                बेटी  की  माँ को सब-सब भूल जाना होता  है | लोग सच कहते हैं बेटी , जल्दी बड़ी हो जाती है कल तक  जिसे था बाहों में   झूला  झूलाया उसे  आज   डोली  में   बिठाना  होता    है |                कहाँ की  राबायत कहाँ  का  दस्तूर  है  यह                कलेजे के टुकड़े  को जुदा  कर  दो  अपने से             

निर्भया और दामिनी एक बार फिर से चर्चा में हैं, अतः दामिनी को मेरे द्वारा दी गई श्रधांजलि के रुप में लिखी गई यह कविता प्रस्तुत है----

दामिनी की फरियाद रोती सिसकती और तड़पती जब मैं बेइंतहा दर्द से कराह रही थी तब भी जिनका दिल न पिघला वे इंसान हैं या कोइ हैवान। धुनती हुइ रुइ की भाँति मेरे शरीर को नोचते रहे वे लोग लडकियाँ हैं उनके लिए एक खिलौना जी भर खेलो फिर फेंक दो सडकों पर।   ऎसी घृणित मानसिकता   नहीं देती हक तुम्हें किसी का बेटा , भाई और पति कहलाने का। तुमने स्त्री अस्मिता की उडाई है खिल्ली   शर्मिंदा है वह माँ जिसने तुम्हें जन्म दिया ,   वह बहन जिसने तुम्हें राखी बाँधी ,   वह पत्नी जिसने हर हाल में साथ निभाने की कसम खाई। तुमने हर मानवीय भाव और संवेदना का उड़ाया है मजाक   अपनी करनी का अब तुम्हें देना होगा हिसाब। जितनी चोटें तुमने मेरी जिस्म पर लगाई   क्यों न उतनी ही चोटों से मैं भी दूँ तुम्हें जबाब ,  तुम्हें समझना होगा   क्या होता है बेआबरु होना।   क्यों न तुम्हें भीड़ भड़े चौराहे पर नंगा किया जाय ,  क्यों न तुम्हारे बालों को पकड़ कर   दिल्ली की सडकों पर घसीटा जाए ,  क्यों न तुम्हें हर उस जगह चोटिल किया जाए जहाँ तुमने मुझे किया ,  क्यों न तुम्हारे एक-एक अंग को जलाया जाय जीते जी ,  क्यों