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छठ के पवित्र अवसर पर सूर्यदेव को अर्घ्य स्वरूप समर्पित मेरी यह कविता........

सूर्योपासना हे मार्तण्ड , आप अनंत उर्जा के स्रोत हो इस तेजोमय उर्जा के एकांश से हमें आप्लावित करो | हे दिवाकर , आप दिव्य प्रकाश के पुंज हो इस प्रकाश से हमारे अंतस के अंधेरे को दूर करो | हे आदित्य , आप ही इस ब्रह्मांड के आदि और अंत हो इस क्षणभंगुर जीवन को शाश्वत के दर्शन करा दो | हे दीनानाथ , आप ही दीन-हीन के रक्षक हो इस दुनिया के दुःख दूर कर उसका मंगल करो | हे भानू , आप तेजस्वी और ज्योतिर्मय हो इस ज्योति से संसार के अमंगलकारी विध्नों को दूर करो | हे पूषण , आप ही धरती के सुख-समृद्धि के मूल हो इस पोषक रुप से हम निर्बलों और निर्धनों को पोषित करो | हे उदयाचलगामी आप का उदय जीवनदायनी है इस जीवन को परहितार्थ जीने का आशीर्वाद दे दो | हे अदिति सूत , आप ही हर जीव और वनस्पति के प्राण हो इस प्राण को दिव्यात्मा से मिलाकर अमरात्मा बना दो | हे भास्कर , आप  अदभूत रश्मियों से युक्त हो इस स्वर्णिम किरणों से हम सूर्योपासकों का कल्याण करो |  

दीपावली में जिनके अपने उनके पास नहीं पहुँच पाये उनकी यादों को समर्पित मेरी यह कविता......

बहुत मस्ती की सबने  इस बार दिवाली  में  खुब दीये जलाये  फोड़े बम  और  पटाखे  हैं | धुँआ तो  फैल गया अब  बताओ  करें  क्या  साँस  लगी फुलने  और दम घुटने  लगे  हैं |  रंगोली हमने सजाई आतिशबाजियाँ भी  की हुआ क्या जो मावा-मिठाईयाँ थोड़े बिषैले हैं । दीपमालायें सजी हैं , रंगीन फानूस और तोरण हैं हमें करना क्या गर दूसरों के घर में छाये अंधेरे हैं । गाँव में सब त्योहार के अवसर पर कर रहे इंतजार हम जायें क्यों , यहाँ मस्ती है, मजा है, ठिठोले हैं |   दूसरों को ठग  कर कुछ ने घी के दीपक जलाये हैं ‌कुछ बेईमानी कर नहीं सकते, कुछ के जमीर सोये हैं |  एक बेटी को छोड़ कितने आये गये इस दिवाली में  माँ की आँखें  ढुँढती  हैं  उसे  और  किनारे  गीले  हैं | 

हम आँख वाले नहीं समझ पाते की दृष्टी की नेमत क्या चीज होती है? न तो हम कभी प्रकृति को इसके लिए धन्यवाद देते हैं न अपने सौभाग्य को सराह पाते हैं | इस कविता में कुछ न कुछ तो ऐसा ही मिलेगा आपको |

आँखें बहुत आशा से कहा था ससुर जी ने ‘ चलिए तनि दिखा दिजीए न डाक्टर से ’ जब से गाँव से आए हैं अब बहुत कम दिखाई देता है उन्हें   अपना काम कर लेते हैं परंतु पढ़ नहीं पाते चुपचाप बैठे-बैठे    कुछ गुनते रहते हैं   दृष्टि पटल हो गई है सूनी दूर आकाश में कुछ ढूँढ़ने की कोशिश लगातार पिछले साल तक पढ़ लेते थे प्रेमचंद की कहानियाँ या भागवत की कथाएँ मन लग जाता था उनका अब कुछ नहीं पढ़ पाते आशा लगा रखी है डाक्टर कुछ ऐसी दवा देगा कि हो जाऐगी नजर ठीक रात दिन करते हैं प्रार्थना हे देव मेरी दृष्टी वापस कर दो   कैसे बाताऊँ उन्हें डाक्टर ने दे दिया है जबाब काँचबिंदु है एक आँख में दुसरी पूरी तरह से खराब हो चुकी है चश्मा भी अब काम नहीं आएगा कैसे कहूँ उन्हें ईलाज के बाबजूद भी अब कोई चमत्कार ही नजर की रोशनी लौटायेगा    जीवन भर किया अब नहीं करती उनसे परदा परदे की जरुरत नहीं रही शायद   पर्दे की जरुरत तो है वहाँ जहाँ आँखें होतीं हैं अब जब आँखें ही नहीं तो परदा कैसा   हम हैं कितने नादान पूछते हैं उनसे नेग तो आपने दे दिया ये तो बताईय

हम सब को कभी न कभी या तो परीक्षार्थी के रुप में या फिर एक निरीक्षक के रुप में परीक्षा भवन का अनुभव अवश्य है , मैं ने उसी परिदृश्य को उकेरने की कोशिश की है इस कविता में

परीक्षा भवन एक शांति स्थल , एक मौन वातावरण , कोई झुक कर लिखता तो सर नहीं उठाता ,   कोई छत को निहारता बार-बार सर को खुजाता ,   कोई नाखून को दाँतों से कुतरता , कोई लिख-लिख कर थक गये हाथों को झकझोरता ,   कोई बार-बार प्रश्नपत्र को पढ़ता ,   कोई लिखता फिर बुद्बुदाता , कोई निरीक्षक को बार बार देखता,     कोई खिड़की के बाहर खुले आसमान को निहारता  |  अजीब सी यह दुनियाँ है जहाँ तीन घंटे के लिए समय किसी के लिए ठहर सा गया है तो किसी के लिए पंख लगा कर उड़ा जा रहा है , कोई होठों को काटता , कोई कनखी से दोस्तों को देखता , कोई लड़की बार बार लटों को संवारती , कोई लड़का बेवजह बैठा मुस्कुराता , कोई गालों पर हाथ रख सोच में डूबा , कोई मेज पर ही सो रहा उत्तरपुस्तिका समेटा , कोई बार बार घड़ी को रहा देख , कोई बहुत जल्दीबाजी में , कोई नितांत स्थिर और शांत,  किसी को प्रश्न छूटने का डर , तो कोई कक्षा से बाहर जाने को आतुर , शिक्षकों के लिए बड़ा ही परिचित परिदृश्य ,   जल्दी समय न कटने का चेहरे पर  उकताहट और खीज ,   साल भर की मेहनत अब तो रंग लायेगी ,

अच्छा लगता है

अपनी इच्छाओं पर हमेशा लगाम कसे रहना  अ च्छा नहीं होता , कभी उसे बेलगाम कर छूट भी देनी चाहिए, फिर कायदे से बाहर जाने पर क्या अच्छा लगता है देखिए  इस कविता में ़़़़   अच्छा लगता है  सागर किनारे रेत पर बैठ तेरे कंधे का सहारा लिये नि : शब्द , मौन निहारना उठती-गिरती लहरों को अच्छा लगता है | अच्छा लगता है छत पर सफेद चादर बिछा तेरे बाँहों का तकिया बना, लेटना और तकना निस्सीम नीले आसमान को अच्छा लगता है | अच्छा लगता है एक लंबी ड्राइव पर निकलना बैठ तेरे साथ कार में और सुनना एक मधुर , मोहक लोकगीत अपने गाँव का अच्छा लगता है | अच्छा लगता है मक्के की रोटी के साथ सरसों का साग परोसना और उसकी सौंधी खुसबू में डूब तुम्हें चटकारे ले कर खाते देखना अच्छा लगता है | अच्छा लगता है   घनघोर बरसात में , चमकती हुई बिजली और गरजते हुए बादलों से  झूठमूठ डरकर तुमसे लिपटना अच्छा लगता है |j अच्छा लगता है काली , अंघेरी आधी रात में गर्म , नरम बिस्तर में लिपटे हुए तेरी बाँहों में पिघल जाना जिस्मों जान का अच्छा लगता है , अच्छा लगता है |