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मार्च, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

यह प्रकृति बड़ी अनूठी है ,कुछ फूलों की खुशबू अद्वित्य होती है और भगवत्ता का आभास करा देती है इस कविता के बहाने कुछ ऐसा ही बांटना है ...........

    कामिनी की सुगंध हे कामिनी तुम ने अपनी खुशबू से मेरी बगिया को महका दिया है उस मधुर खुशबू से मेरा तन, मन और अंतरतम सराबोर हो गया है इस खुशबू की बारिश में मैं भिंग गई हूँ इसका नशीलापन मुझे मदहोश बना रहा है मेरी आँखें बंद हो गई हैं और मेरी पलकें भारी एक सुख है जो अवर्णनीय है मैं महसूस कर रही हूँ उस परमात्मा का सामीप्य जो कभी दिखता नहीं लेकिन आज तेरी वजह से दूर नहीं लगता तेरी महक इतनी मीठी है कि मैं इस मिठास से रोमांचित हूँ एक लहर है जिसमें मैं हिंडोले सा झूल रही हूँ एक ज्वार है एक तरंग है जो मुझे अपने साथ बहा ले जा रही है तू बता मैं तेरा कैसे धन्यवाद करुँ तेरा दिया उपहार अनमोल है फिरभी तू उसे बिना मोल के लूटा रही है कैसे करूँ तेरा शुक्रिया इसकी कीमत चुकाने की सामर्थ्य कहाँ करती हूँ तुझे प्रणाम हाथ जोड़ कर और मानती हूँ अपना अहोभाग्य कि मेरी घ्राणशक्ति सलामत है और मैं इस स्वर्गीय सुख को महसूस करने में समर्थ हूँ हे निसर्ग के उपहार तुझे प्रणाम अगर तू है तो परमात्मा कैसे नहीं है ?

क्या यह सच नहीं कि प्रकृति माँ की भाँति हमारे घावों पर मरहम लगाती है और वह सब सिखाती है जो हम किसी विश्वविद्यालय में भी नहीं सीख सकते , कुछ ऐसा ही इस कविता के बहाने ..........

प्रकृति की सीख घर गृहस्ती के झमेले से होकर बेजार इसकी उसकी बातों से हो कर दो चार बेजान कदमों से अकेली घर से निकल गुलमोहर तले आ कर बठी थी मैं एक छोटी सी गिलहरी पेड़ों से उतर पांव मेरे छूकर फूर्ति से गई जो निकल  बड़ा प्यारा लगा जी मेरा खिल गया कहीं कोयल तभी कोई कुहुक सी उठी मन मयूरा झूम-झूम नचने  लगा गुलमोहर की फूलों ने बरसात की तन मेरा भींग उठा मन चंदन हुआ ठंड़ी-ठंड़ी हवाओं ने जो चेहरा छुआ मैं पंख खोल तितली सी उड़ने लगी नीले आसमां में थे जो बादल घने मैं ने अपनी हथेली से उनको छुआ उसके ऊपर सूरज की खिली धूप थी  उसकी गर्मी बड़ी ही भली सी लगी कुछ चिडियाँ मेरे संग-संग थे उड़ रहे मैं ने पूछा उनसे उनका ठिकाना पता वो मुझे ले के अपने घर  को  चले था पहाड़ों के उपर एक सेमल खड़ा लाल फूलों की लाल-लाल नगरी बड़ी था वहीं उनका घोंसला तिनकों से बना जिसमें उनके बच्चे रहे थे चहचहा याद मुझको तब मेरे घर की हो आई तेज कदमों में मेरे अब एक रफ्तार थी मैं अपनी गृहस्ती संभालने को बेताब थी प्रकृति है माँ उसकी सीख है सबसे बड़ी इसमें ढूँढों तो पाओगे जीवन की लड़ी |

आज के व्यस्त जिंदगी में कार्य के बोझ तले हम इतने दब गये हैं कि प्रकृति से दूर हो गए हैं और कुछ बड़े ही कीमती अनुभवों से अपने को वंचित करते जा रहे हैं , इस कविता में ऐसे ही कुछ अनमोल पलों के बारे में .........

सार्थक पल  काम , काम और काम आदत पर गई है ऐसे काम करने की गर कुछ न करो तो होता है समय की बरबादी का आभास एक अपराधबोध जो अंदर से सुलगाता है काम भी ऐसे जिसमें कोई नयापन नहीं नीरस और उबाऊ सुनती आई हूँ काम ही जीवन का नाम है लेकिन आज इस घनचक्कर से निकल आई हूँ निरुद्देश्य भटकने का मन में कर विचार घर से बाहर प्रकृति के करीब कभी मैं चट्टानों पर बैठती हूँ कभी हरी घास पर लेटती हूँ कभी अशोक के तने से टिक आँखें मूँद लेती हूँ आज मन में घुमड़ते विचारों को दिया है विश्राम शरीर के रोयें रोयें पर ताजी हवा का स्पर्श महसूस करती हूँ उसकी सोंधी सी खुशबू को अपने अंदर समेट लेती हूँ और ताजगी से भर जाती हूँ चिड़ियों की चहचहाहट को कानों में उतार लेती हूँ दूर से आती किसी फूल की खुशबू को पहचानने की कोशिश करती हूँ आँखें खोल नीले आसमान को निहारती हूँ और एक पत्थर तालाब में उछालती हूँ उड़ती तितलियों से दोस्ती करने हेतु अपने को थिर बना एक पेड़ में बदल लेती हूँ वो आकर मुझ पे बैठते हैं तो सिहर उठाती हूँ यूँ कई घड़ी जब बीतते हैं महसूस ये करती हूँ बिना काम के निरर्थक भटकना जीवन में नय

कभी कभी जीवन में सबकुछ बड़ा ही बेढब और बेतरतीब लगता है , जीवन की डोर उलझती ही चली जाती है । खुद जीवन ही एक पहेली सी लगाने लगती है ।अपना आपा ही बेगाना सा नजर आने लगता है ।कुछ है जो हम ढूँढ रहे हैं और वह हमसे और दूर होता जाता है । क्या हर व्यक्ति के साथ ऐसा होता है ?

जिंद गी और द्वंद्व दिन कटोरी सा खाली खाली रातें वीरान डगर सी सूनी-सूनी जिंदगी है कि लंगड़े की पांवों सी घिसट रही है हर सपना टूटे हुए कांच सा बिखर जाता है झुलसती दोपहर की लंबी बियाबानी नकाबिले बर्दास्त पसीने की चिपचिप टूटी फूटी सड़कों सी उबड़ खाबड़ विचारों  का ताँता हिचकोले खा रहा है कोई तारतम्य नहीं उनमें रात के अँधेरे में बनती बिगड़ती सायों की तरह कभी बड़ा कभी छोटा एक दूसरे में गड्ड मड्ड होते हुये पानी में पड़ते रोशनी की तरह कभी पारदर्शी प्रतिबिम्ब कभी पानी सा ही हिलना और फैल जाना कुछ भी तो थिर नहीं न वक्त, न दुनिया, न मानव का मन थिर की तलाश में भटकता यह सम्पूर्ण ब्रह्मांड मैं भी तो इसी तलाश का एक हिस्सा हूँ मकड़ी के जालों सा यहाँ वहाँ लटकते मेरे द्वंद्व  यह अस्तित्व हमें झुलाता क्यों है इतना रुलाता क्यों है क्या अब कब्र में ही इन सवालों के जबाब हम पायेंगे या जिंदगी भी अपने से टकराने वालों और टिक कर खड़े होने वालों के सामने खुलती है दूध का दूध पानी का पानी कर जाती है ।

फागुन आते ही जहाँ प्रकृति रंगीन हो जाती है वहीं बूढ़ों पर भी जवानी सी छाने लगती है । गांवों में तो फाग और फगुआ का नजारा और भी मस्त होता है ।इसी नज़ारे को पेश करने की एक कोशिश इस कविता के माध्यम से ......

होली हौले हौले चली फागुनी बयार मदहोशी सी छाई है वृंदावन में कृष्ण ने राधा संग फिर रास रचाई है अमराई में कोयल की टेर ने धूम ही मचाई है आमों के मंजर ने बूँद बूँद मधुवा टपकाई है छोटे बड़े सबने मिल टोली बनाई है बुजुर्गों और बूढ़ों में भी जवानी सी छाई है गाँव के पंडित ने सुबह से ही भांग पिसवाई है चौधराइन ने टेसू के फूलों से बासन्ती रंग बनबाई है चौधरी ने पीतल की पिचकारी खूब चमकाई है गोबर से दादी ने  आँगन लिपवाई है चौके में भौजी ने स्वादिष्ट मालापूवा बनाई है जीजा संग गुलाबी रंगत वाली बहना भी आई है हम न छोड़ेंगे तुझे, भाभी देवर में ठनी लड़ाई है ढोलक पे थाप पड़ी किसीने मंजीरा झनकाई है होली के गीतों ने सबमें मस्ती बरपाई है एक बरस बाद आखिर होली जो आई है ।