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एक छोटे से शिशु को गोद लिजीए उसे कलेजे से लगाईए और कुछ देर के लिए आँखें बंद कर लिजीए सच कहती हूँ पारलौकिक अनुभव होगा । थोड़ी देर के लिए आप खुद को भूल जायेंगे और महसूस यूँ होगा जैसे आत्मा की शुद्धी हो गई ।आज इसी शिशु को समर्पित है यह कविता ........

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शिशु एक शिशु में   भगवत्ता संपूर्णता से उद्घाटित होता है  निश्छल, निर्बोध, सरल, सहज शिशु  प्रकृति का अनुपम  वरदान  उसके चेहरे का स्मित हास हृदय में कैसी हूक जगाता है बार बार चेहरे का भाव बदलना कभी पलकों का हिलना  कभी भौंहों का विन्यास बदलना  कभी रोना कभी हंसना कैसा निश्छल रुप मन भर भर आता है बाहें कलेजे से लगाने को बेकल हो उठती हैं  हृदय ममता की वर्षा से भींग जाता है  कितनी प्यारी छवि ईश्वर साक्षात् शरीर रुप में पहचान और अपहचान से अनभिज्ञ शिशु  सबको समान रुप से अपनाता है मनुष्य अपने शुद्ध रुप में  शिशु रुप में ही तो रहता है शायद इसीलिए हर बच्चा सुंदर होता है ।                                                -मुकुल कुमारी अमलास 

मेरे सपनों का घर

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मेरे सपनों का घर मेरे सपनों का घर हाँ सपनों सा ही सुंदर सपने भी वास्तविकता में तब्दील हों ऐसा क्षण जीवन में कम ही आता है  कितनी उत्कंठा कितना परिश्रम एक यज्ञ ठानने सा संकल्प फिर बिना विध्न के उसे पूरा कर लेने की तड़प  क्या कोई यज्ञ बिना बाधा के पूरा हुआ है  कैसे – कैसे रोड़े कैसी – कैसी समस्याएं हाँ , इस यज्ञ में हवन हो गये जीवन के कई साल और बनाना पड़ा खुद को ही समिधा की सुखी लकड़ी तैयार दिन भर की भागम-भाग और रातों का हिसाब-किताब बेहिसाब साधन-सामग्री को इकट्ठा करने का संताप भूख प्यास और ताप  सीसे में दिखी वो पहली झुर्री जो आँखों के किनारे पड़ी थी लेकिन बिना बलि के यज्ञ पूर्ण कैसे हो  यज्ञ सम्पन्न हुआ मनचाहा मिला वर सपनों से भी बढ़ कर | मैं रहूँ न रहूँ अब लेकिन रहेगा मेरा घर मेरा परिश्रम अपने मूर्त्त  रुप में मुझसे भी लंबी आयु लेकर  है यह बच्चों को अपनी ओर से दिया गया उपहार उनका पनाहगार  अब है संतुष्टि सर पे अपना घर होने का एहसास इस धर

चाँद पे लिखना कवियों का पसंदीदा शग़ल है मैं भी इस सम्मोहन से मुक्त कैसे हो सकती हूँ | चलिये आज कुछ चाँद के बहाने ही सही............

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आवारा चाँद कल रात चाँद मेरी खिड़की से एक आवारा लड़के सा झांक रहा था उसके नज़रों की तपिश मेरे अंग-अंग को जैसे भेद रही थी कैसा बेसब्रा हो घुस आया था वह अंधेरे कमरे में भी कैसे समझाती उसे मैं कि इतनी आवारगी अच्छी नहीं  मैंने परदा सरका दिया तो वह फुसफुसा उठा  कुछ गुनगुना उठा उसका  झीना झीना रूप मुझे प्यारा लगा परदे की ओट में फिर हम घंटों बातें करते रहे मेरी आंखों में निंद नहीं थी और उसे तो रतजगे की आदत थी रात गहराती गई हमारी बातें खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थीं उसकी बातों में मिठास थी गहरी अंधेरी रातों के एक से बढ़ कर एक क़िस्से  उसकी ज़ुबान पर थे कि कैसे रात को फूल और पौधे आपस में बतियाते हैं कैसे तारे जासूसी करते हैं कैसे परियाँ धरती पर उतरती हैं  कैसे हवायें अपना रेशमी आँचल लहराती हैं   कैसे मानव रातों को बहुरूपीये सा अपना खोल उतारते हैं रात की तिलिस्मी दुनियाँ का असर धीरे धीरे मुझ पे तारी था और सच कहती हूँ कुछ पल को चाँद मेरे संग धरती पर उतर आया था ।                   

मिथिलावासी होने के नाते सीता ने जो दुःख सहा कहीं न कहीं मुझे भी सालता है यह दुःख और राम से कुछ प्रश्न करने की बार बार इच्छा जगती है | आज जब दशहरा के दिन जगह जगह रावण को जलाने की तैयारी चल रही है, रोक न सकी खुद को उन प्रश्नों को पूछने से .....

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कैसे कहूँ तुम्हें मर्यादा पुरुषोत्तम सीता धरती में समाई अगर सीता को धरती में समाने के सिवाए क्या था कोई उपाय ! जिस राम के ख़ातिर वन वन भटकी दिया साथ जिसका हर घड़ी हर पहर उसी राम ने छोड़ा साथ दिया वन गमन की तड़प हे राम !  क्या हृदय पर हाथ रख कर कह सकोगे कि सीता के हृदय में तुम्हारे सिवाय कोई और था ? या फिर यह कि रावण ने अगर सीता का किया हरण तो इसमें सीता का क्या दोष था ? अगर नहीं था दोष  तो सीता की अग्नि परीक्षा क्यों ? सीता को किस पाप का दंड ? राम , दुनियाँ कहती होगी तुम्हें मर्यादा पुरुषोत्तम मैं न कह सकूँगी तुम मर्यादा पुरुषोत्तम तब होते जब  सीता को हृदय से स्वीकारा होता यह जानते हुये भी कि जिस पापी रावण ने सीता को छुआ वो सीता का शरीर था उसकी आत्मा तो निर्मल है और उसमें सिर्फ राम समाया है सीता ने तो अपने आत्मबल से कर ली थी रावण से अपनी मर्यादा की रक्षा पर तुमसे न कर पाई इसकी रक्षा एक स्त्री की मर्यादा को रावण ने नहीं किया भंग एक पति ने किया भंग एक निर्दोष गर्भवती को गृहत्याग की आज्ञा दे कर तुम्हारे

किसी प्रिये का जीवन में होना एक वरदान है और इसका महत्व वही समझ सकता है जो इस वरदान से वंचित है | चलिये इसी बहाने एक कविता सबके लिये........

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एक कुमुदिनी कुम्हलाई सी  तुम हो मेरे पूर्ण पुरुष से  मैं एक अतृप्त अभिलाषा सी  तेरी छुअन मुझको है लगती  देह की कोई परिभाषा सी । संग संग मैं तेरे चलूँगी  बन कर एक परछाई सी  तेरे बिन मेरी क्या हस्ती  तितली इक बौराई सी  । तेरे बिन सूना यह जीवन  जैसे  बगिया बिन फूलों की तेरे बिन जब सांसें चलती लगती दुनियाँ हरजाई सी । तुम मेरे अस्तित्व पे छाये  जैसे किरण हो सूरज की  तेरी किरण से खिल उठती मैं जो थी कुमुदिनी कुम्हलाई सी ।                                                                                        मुकुल कुमारी अमलास           ( चित्र गूगल से साभार )