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क़तार

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क़तार क़तार में खड़ा है देश  रफ़्तार है रुकी हुई  अपना पैसा आप नहीं मिलता  साँसें हैं थमी हुई पर चुप रहूँगा मैं  आवाज नहीं उठाऊँगा  विरोध प्रकट किया अगर  देशद्रोही कहलाऊँगा  क़तार में खड़े -खड़े  मातृभूमि का कर्ज़ चुकाऊँगा  भूखा हूँ तो क्या हुआ  मर नहीं जाऊँगा  अगर दो दिन नहीं खाऊँगा  स्वच्छता अभियान में  सरकार का साथ निभाऊँगा  नींद बहुत आयेगी तो  सड़क पर ही सो जाऊँगा  लोकतंत्र का पैरोकार हूँ  लोकतंत्र ने ही सिखाया है  लंबी-लंबी लाईन में हमने वोट गिराया है  देश का सारा धन सिमट गया कुछ हाथों में ईमानदारी से आयकर चुकाऊँगा  पर उनपर उंगली नहीं उठाऊँगा  लोकतंत्र की घुट्टी पीकर  अबतक गृहस्ती चलाई है  लोकतंत्र जब खतरे में है  तो अब क्यों पीठ दिखाऊँगा  क़तार में जीना क़तार में मरना  हमने अब है सीख लिया  लोकतंत्र में लोक की आफत  यही मंत्र दोहराऊँगा ।                                                              ---मुकुल सिन्हा अमलास ( फोटो गूगल से साभार ) 

दाना माँझी की घटना ने मुझे भी झकझोड़ कर रख दिया, मन में जहाँ एक तरफ गहरी पीड़ा थी तो दूसरी तरफ व्यवस्था के प्रति आक्रोश और अपनी असहाय स्थिति के प्रति क्षुब्धता का भाव तथा पता नहीं और क्या-क्या जो इस रचना के जन्म का कारण बनीं..........

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कालाहाँड़ी   कल रात मैं ने एक अजीब स्वप्न देखा मैं एक काली हाँड़ीनुमा द्वार पर खड़ी हूँ गोल पर छोटा सा है वह द्वार अभी-अभी एक व्यक्ति अपने कंधे पर कुछ लादे भीतर गया है उसके साथ एक बच्ची भी है मैं उसके साथ भीतर जाना चाहती हूँ पर वहाँ खड़ा संतरी मुझे अंदर जाने से रोक देता है मुझसे पूछता है ढ़ेरों सवाल- कौन हो तुम ? कोई खोजी पत्रकार ? शिक्षकों का यहाँ क्या काम ! यहाँ क्यों आये हो ? उस व्यक्ति से क्यों मिलना चाहते हो ? कोई नाता-रिश्ता ? हितैषी !  यह कौन सा रिस्ता होता है ? बताती हूँ उसे कि‌‌‌‌-  वास्तविक आजादी का अर्थ ढूँढने आई हूँ उन प्रश्नों के उत्तर ढूँढने आई हूँ जो मेरे छात्र अक्सर मुझसे पूछते हैं-  ‌‌ 'जब भारत दुनियाँ के दस सबसे धनी देशों में शामिल है तो भी दाना माँझी जैसे लोग देश में क्योंं हैं'?   बच्चे मुझे आँकड़े दिखाते हैं 'भारत व्यक्तिगत संपति के मामले में दुनियां में सातवें स्थान पर है मैडम आप यह क्यों कहती हैं कि भारत गरीब है' मेरे छात्र समृद्ध परिवारों से आते हैं उन्हें नहीं पता गरीबी क्या होती है वो भ

रुका हुआ समय

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रुका हुआ समय  भीड़ भरी सड़क पर चलते-चलते ऐसा लगा जैसे समय रूपी नदी में सब बहे जा रहे रफ़्तार से - आगे की ओर सिर्फ मैं ही एक चट्टान की भाँति खड़ी हूँ सारे झंझावातों को झेलते हुए नदी के बीचों बीच निश्छल, निर्जीव समय की तेज धार मुझ पर वार कर रही अपने तेज नाखूनों से मैं खुरचती जा रही हूँ थोड़ी-थोड़ी पर कुछ है जो थम सा गया है मेरे अंदर वह इस बहाव का हिस्सा नहीं मेरे लिए तो समय वहीं रुक गया था जहाँ तुम मुझे छोड़ कर गए थे कहना चाहती हूँ समय की इस धार से हो सके तो एक बार मोड़ ले रुख अपना वहीं जहाँ  एक दिल है जो धड़कना भूल गया है एक तितली है जो पंख फैलाये उड़ने को आसमान में टंगी पड़ी है एक फूल है जो अधखिला रह गया है एक गीत है जो गाई न जा सकी एक मीठा बोल है जो बोला न जा सका अभी तो एक खत को पते तक पहुँचाना बाकी है अभी तो एक दोस्ती का बढ़ा हुआ हाथ थामना बाकी है अभी तो मेरी झुल्फों को उसके कन्धों पर बिखरना बाकी है अभी तो मुझे सावन बन उसपर बरसाना बाकी है वक़्त की धारा अगर रुक सको तो रुक जाओ एक पल केलिए सिर्फ मेरे लिए मैं एक बार ज

आज प्रेमचंद जी का जन्मदिवस है | प्रेमचंद मेरे लिये सिर्फ एक लेखक का नाम नहीं है बल्कि एक ऐसी हस्ती जिन्होंने हृदय को कहीं गहरे में छूआ है | कभी मर्माहत तो कभी आश्चर्यचकित किया है | जब भी उनको पढ़ती हूँ सोचती रह जाती हूँ कि किसी व्यक्ति को मानवीय संवेदनाओं का इतना ज्ञान कैसे हो सकता है ! आज उनको समर्पित करती हूँ अपनी यह कविता ......

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तलाश  आश्चर्यचकित हूँ कि  मैं खुद से ही कितनी अपरिचित हूँ  मेरे अंदर छिपे हैं मेरे ही कितने रूप  कल मैं ने पाया मेरे अंदर से एक बच्ची निकल आई -  वह बादलों को छूना चाहती थी  वह तितलियों को पकड़ना चाहती थी  वह इंद्रधनुष की नाव बना  पूरी दुनियां की सैर करना चाहती थी  और घर के हर कोने में उस माँ को ढूंढ़ रही थी  जो बहुत पहले उसे छोड़ कर जा चुकी है  माँ को न पा वह फूट-फूट कर रोती रही   फिर रोते-रोते ,हिचकियाँ लेते-लेते वह मर गई। आज न जाने कब मेरे अंदर से निकल आई एक किशोरी  सुंदर, सुकुमार, कल्पनाओं के पंख पर सवार  उसके सपने नितांत अधूरे थे, उसकी भावनाएं नितांत कोरी, पाकीजा  उसका शरीर सीसे सा झलक रहा था  मन गंगा जल सा पावन  जीवन से भरी थींं उसकी आँखें  उसके चेहरे से मुस्कान कभी मिटती नहीं थी  हर इंसान उसे भला लगता था  वह जीवन को पूर्णता में जीना चाहती थी  उसकी कल्पनाओं और जीवन की वास्तविकताओं में  कोई मेल न था  सुकोमल कल्पनाएं वास्तविकता की चट्टानों से टकरा कर  चूर-चूर हो गईं   और वह किशोरी गिर गई एक गहरी खाई में  एक बहुत

जीवन का खेल कितना अनोखा है कभी-कभी यह मुझे अचंभित कर देता है, जब कुछ ऐसा घटता है जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी मेरी यह कविता इसी भाव दशा में लिखी गई है .....

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क्या सखी तुमने भी देखा है ? कोमल, मृदुल और सुवासित बेहद रंगीन,  बेहद सुंदर  जीवन के मधुमास काल में  बिना खिले ही किसी पुष्प को  धीरे-धीरे झरते देखा है  क्या सखी तुमने भी देखा है ? आँखों-आँखों में ही  सराहा  मन ही मन में किसी को चाहा  अन बोले उस अप्रकट प्रेम को  जीवन के चक्रव्यूह में फँस कर  धीरे-धीरे मरते देखा है  क्या सखी तुमने भी देखा है ? प्रेम विभोर किसी प्रेयसी के  मन आँगन में उगे हरसिंगार से  किसी अँधेरी आधी रात को  सफेद-केसरिया भाव सुमन  हौले-हौले झरते देखा है  क्या सखी तुमने भी देखा है ? दग्ध हृदय है व्याकुल आहें  राह तकती थकी निगाहें  प्रियतम से बिछड़ी विरहन को  सावन की रिमझिम रातों में  तिल-तिल कर जलते देखा है  क्या सखी तुमने भी देखा है ? सुख समृद्धि के चरम पे पहुँचे रीतेपन का एहसास लिए  रिश्तों की भीड़ में तन्हा  किसी बावले भावुक इंसा को  बिलख-बिलख रोते देखा है  क्या सखी तुमने भी देखा है ? जीवन की आपाधापी से जर्जर,  थके, शिथिल हो चुके अंग में  किसी भूले मित्र की पाती पाकर  संवेगों के प

सूर्य का ताप अपने चरम पर है, सब की एक ही इच्छा है - बरसो रे बदरा झमझम कर, ऐसे में धरती की पुकार को मैं ने अपनी इस कविता के माध्यम से स्वर देने की कोशिश की है .......

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मैं धरा तुम अंबर के मेघ  तुम हो  मेरे स्वप्न देव  मैं धरा तुम अंबर के मेघ  तेरे जल कण को तरसती  उड़ती धूल संग पवन वेग । मैं अकिंचन शुष्क रेत  है अतृप्ति प्रचंड शेष  मेरी हरीतिमा के सुख-स्रोत मैं प्यास तुम सुधा अशेष । तुम से जो रसधार बरसे  मैं मुदित जी भर नहाउँ  तुम बनो बैकुंठ मेरे  चख सुधा अमरत्व पाऊँ । फूटे  अंकुर चीर सीना  जीवन की पहचान बनकर  मैं ओढूँ धानी चुनरिया   तुम उड़ो निर्भार होकर । तुम से ही जीवन धरा पर  तुम से ही है आत्मा  तुम झमाझम मुझ पे बरसो  तृप्त हो जीवात्मा ।                                                  -  मुकुल अमलास                             (चित्र गूगल से साभार )

अमलतास

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अमलतास  अमलतास के सारे पत्ते झड़ गए थे गर्मी आते ही पेड़ ठूँठ सा खड़ा था दिल में एक हूक सी उठती थी देख कर कुछ दिनों बाद छोटे-छोटे पत्ते निकल आये नाजुक सी कोमल-कोमल पत्तियाँ मैं ने उँगलियों से छूआ  लगा मेरी उँगलियाँ बहुत रुखी हैं पत्ते बहुत ही कोमल हैं ये उँगलियाँ उनका नुकसान कर बैठेंगी डर कर छोड़ दिया जल्दी से फिर कुछ ही दिनों में निकलआए उसमें पीले-पीले फूलों के गुच्छे धरती की ओर झुके हुए मैं सोचने लगी सारे फूल तो ऊपर की ओर खिलते हैं ये अमलतास के गुच्छे नीचे की ओर क्यों झुके होते हैं ?  इतनी सुंदरता और ऐसी सादगी ! गजब का है उसका सौन्दर्य जब उसके गोल-गोल छोटे-बड़े फूल हवा में डोलते हैं सागर के उर्मिल तरंगों सा मन हिलोरें लेने लगता है हियरा जुड़ा जाता है और भला बसंत कैसे आता है ?                                                        --- मुकुल कुमारी अमलास ( चित्र गूगल से साभार )

चाबी की गुड़िया

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चाबी की गुड़िया गाल पर हाथ धरे सोचती मैं अपनी दिनचर्या क्या इसमें कुछ अपना है ? मेरी दुनियाँ सीमित है सिर्फ इन चहारदीवारियों में स्वेच्छा से कैद एक बंदी सुबह से शाम तक चकरधिन्नी की तरह दूसरों के इशारों पर नाचती ढूँढती हूँ सुकून का  एक पल जो सिर्फ मेरा हो जिसे जी सकूँ अपनी मर्ज़ी से मेरे कर्म के साथ-साथ मेरे विचारों की भी सीमा बंध गई है घर से विलग मैं कुछ और नहीं सोचती यह है असली पराधीनता जिसका एहसास तक नहीं मुझे मुक्ति की आकांक्षा खो चुकी हूँ मेरे हिस्से में है सिर्फ एक मुट्ठी आसमान जो रसोई की खिड़की से दिखता है मेरे लिए हरियाली का अर्थ है  गमले में लगा हुआ एक तुलसी का पौधा नहीं है मुझे अनुमान इस दुनियाँ के विस्तार का ब्रह्मांड की विशालता का मेरी दुनियाँ सीमित है  ससुराल से पीहर  तक मैं हूँ मर्यादा में रहने वाली भारतीय गृहिणी चाबी से चलने वाली गुड़िया जिसकी चाबी किसी और के हाथ में  शोकेस में एक निश्चित स्थान है मेरा मैं सजती हूँ सँवरती हूँ सुंदर सी दिखती हूँ दूसरों के इशारों पर चलती हूँ और चलत

कैंसर

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कैंसर   निश्चल, निःशब्द खड़ी खिड़की में  सूनी आँखों से तुम तकती हो निरंतर बाहर  तुम्हारा मौन कितना प्रखर है !  इस खिड़की से क्या दिखता है तुम्हें  इस दुनियाँ की निस्सारता ?  या ढूँढती हो औरत होने की वह पहचान  जिसे छीन लिया है इस बिमारी के दंश ने  तुम्हारे अंदर पसरा है एक सन्नाटा  क्या उसे खिड़की के बाहर की शोरगुल से  भरना चाहती हो ?  माँ मैं तुम्हारे दर्द को बाँटना चाहती हूँ  लेकिन तुम कुछ बोलती ही नहीं  न करती हो किसी से कोई शिकायत  मौन को बना लिया है तुमने अपना हथियार  बस अंदर ही अंदर सब सहती हो |  मैं चाहती हूँ खुद को आश्वस्त करना  और तुम में उम्मीद भरना  कि - अब सब ठीक है  परंतु अस्पतालों की दहलिजें  ऐसा करने से रोकती हैं जिसे करना पड़ता है तुम्हें पार  बार-बार  जिस बिच्छू ने तुम्हें डसा है  उसका दंश है बड़ा विध्वंसक  शरीर के अंग कटते जा रहे हैं  और छीजता जा रहा है  शरीर बाहर से, मन अंदर से  आँखों के आँसूओं को तो तुमने सुखा डाला है  परंतु इससे झलकता दर्द  रुलाता है मुझे, तड़पाता है मुझे  अभी सबकुछ है जीवंत  तुम, मैं,

क्या सबकुछ मर रहा है ?

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क्या सबकुछ मर रहा है ? ढूँढ़ती हूँ प्रकृति को अपने निश्छल रूप में पर कहीं नहीं दिखती वो सुबह सैर पर निकलती हूँ दिखता है कचरे और प्लास्टिक के जलते अवशेष उस धूएँ में मेरा दम घुटने लगता है खोजती हूँ स्वच्छ हवा जो प्राण भर दे फेफड़ों में देखना चाहती हूँ दिव्य सूर्योदय पर दिखते हैं आसमान में केबलों और बिजली के तारों के जाल उससे झाँकता छोटा सा सूरज जिसने खो दी है अपनी भव्यता ढूँढती हूँ धरती पर कोई कोना जो अनछुआ हो मानवीय हस्तक्षेप से कोई सीमांत वन प्रदेश अपने पूर्ण जंगली और देशी रूप में अपनी सुंदरता बिखेरते हुए सुनना चाहती हूँ प्रकृति का वास्तविक संगीत पत्तों की सरसराहट पक्षियों के पंखों की फरफराहट भौंरों की गुनगुनाहट किसी वेणुवन में वेणुओं के आपस में टकराने से होती सरगोशियाँ देखना चाहती हूँ नीला, स्वच्छ आसमान जो दिखता है हर ओर मटमैला जीना चाहती हूँ एक ख़ालिस आदिम जिंदगी हर बनावट से दूर अपनी पूरी वास्तविक स्वरूप में सभी पूर्वाग्रहों और सभ्यता के चोगों से अनावृत पर सब कुछ है अपने नियंत्रण से बाहर धुंधला, मटमैला, गन्दा,

आज जब सारी दुनियाँ महिला दिवस मना रही है तो बड़ी-बड़ी बातें और दावे किये जा रहे हैं ऐसे में यह सोचने का समय है कि क्या वास्तव में स्त्रियों की जिंदगी में कोई बदलाव आया है ? अगर आया है तो कितने प्रतिशत की जिंदगी में ? क्या महिलाओं की आधी आबादी अभी भी कुछ ऐसी जिंदगी नहीं जी रही .......

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 औरत  हर समय उसकी आँखें डबडबाई ही रहती हैंं  कौन सा है ऐसा  गम जिसे दिल ही दिल में सहती है ! सहमे-सहमे लफ़्जों में एक कहानी वह कहती है हिचकियों में डूबी हुई थरथराती स्वर लहरी है । सुंदर सी काया उसकी धीरे - धीरे मरती है वही जानी पहचानी सी फ़िल्म फ़्लैश बैक में चलती है । औरत होने का जूर्म उम्रकैद की तरह सहती है फफोले में भरे पानी सा टीसती है कसकती है । ...... मुकुल अमलास  ( चित्र गूगल से साभार) 

हर मौसम का अपना मिजाज होता है, अपना अपना गुणधर्म लिए ये हमें कभी आह्लादित करता हैऔर कभी खिन्न । सर्दी का मौसम मेरे ख्यालों में कैसे उभरता है देखिये इन पंक्तियों में ............

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शीत  दुल्हन शीत ऋतु  लगाती मुझे  एक ऐसी ग्रामीण दुल्हन  जो हजार हजार परदों में रहती   साला-दोसाला ओढ़े हुए  घर के अंदर  दबी-ढकी नई-नवेली बहू सी  सब से शर्माती   बच कर, संभल कर चलती  क्योंकि पता है  सब की नजर है उसी पर  बीती रात गये  जब पति कोहबर में आता   उसे बाँहों में कस लेता   वह सकुचाती, सिहरती हुई  उसकी बाँहों की गर्मी में छुपी रहती है  सुबह सर पे है झिलमिल चुनर चेहरा थोड़ा सा झलकता  थोड़ा सा छुपा रह जाता है  जैसे कुहासा छाया हो चारों ओर  और धरती रूपी दुल्हन के चेहरे पर झिलमिल सा पर्दा पड़ा हो दिन में  पहरुआ पति के कहने पर  आँगन में निकलती है  रोशन चेहरा लिये  सूरज की भाँति  लुकाछिपी करते हुये  अपने रूप की गर्मी से सब को मुग्ध कर  फिर शर्माती हुई  तुरंत ही  अपने घूँघट में छुप जाती है  शाम रूपी सितारों जड़ी आँचल ओढ़े ।  --- मुकुल अमलास (चित्र गूगल से साभार)