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प्रकृति की हर घटना अनुपम है चाहे वह वसंत का आगमन हो या पतझड़ का दौर | आज पतझड़ के बहाने ही सही प्रस्तुत कर रही हूँ अपने कुछ मनोभाव -----

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पतझड़ का सौंदर्य सागौन के जंगल से गुजरते हुए देखा मैंने पतझड़ का सौंदर्य माघ माह की सर्द दोपहरी तेज ठंडी हवा का आता-जाता झोंका सूखे पत्तों की होती बरसात अपलक निहारती ही रही निसर्ग के इस विनाश-पर्व को मुझ पर गिरते रहे पीले , सूखे पत्ते सिहराते रहे मुझे अपनी छुअन से होती रही मैं रोमांचित उस चरचर , मरमर से जिस पर पड़ रहे थे मेरे पाँव उस वीरानी से जो बिखरा पड़ा था सूखे पत्तों के साथ चारों ओर मैं ढूँढ़ती रही जीवन-सौंदर्य सूखेपन की सोंधी सी खुशबू में हर पेड़ पर टंगे हैं अब बस कुछ ही पत्ते ज्यूँ टंगे होते हैं बच्चों के पतंग बिजली के खम्भों और झाड़ियों पर नंगे होते जा रहे सागौन के पेड़ गंजे सिर,ठूंठ से खड़े  दे रहे तर्पण अपने ही शरीर के एक -एक अंग को पर ढूँढ़े नहीं ढ़ूँढ़ पाती कहीं उदासी का आलम इस बेरंग , धूसर , जीर्णशीर्ण होते जंगल में भी आ रही कहीं से  फगुनाहट की गंध और आहट नवजीवन और नवबसंत का संदेश लिए |                  --- मुकुल कुमारी अमलास       (चित्र गूगल से साभार) 

'निःशब्दता के स्वर' की समीक्षा

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हाल ही में मेरी पुस्तक 'निःशब्दता के स्वर' सिद्धार्थ बुक्स, दिल्ली से प्रकाशित हुई और उसका लोकार्पण हुआ । आज लोकमत समाचार के परिशिष्ट 'लोकरंग' में लब्धकीर्ति साहित्यकार श्री हेमधर शर्मा जी की समीक्षा आई है, अपने ब्लॉग के पाठकों के लिए उसे प्रस्तुत कर रही हूँ----