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नए साल की आमद कुछ-कुछ ऐसी हो।

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  बची रहें कुछ यादें मीठी , आगे नया जमाना हो नए साल की आमद कुछ-कुछ ऐसी हो।   प्रति पल जीवन लगे नया हर क्षण को जीना आ जाए बीते का कुछ मोल नहीं ज़हन में बात उतर जाए .......   अहोभाग्य से भरे रहें , सर प्रभु के आगे नत हो नए साल की आमद कुछ-कुछ ऐसी हो।   भले न हो अंबार सुखों का मुस्कान की लाली हो भले न हो भंडार स्वर्ण का थाली न खाली हो .........   पड़े माँगना कभी किसी से ऐसी न कभी गत हो नए साल की आमद कुछ-कुछ ऐसी हो।   आगत की चिंता न सताए जो होना हो सो हो कर्मठता को साधें हर पल वर्तमान में जीना हो ..........   रहे सदा मस्ती का आलम , बेफ़िक्री की मत हो नए साल की आमद कुछ-कुछ ऐसी हो।   प्रकृति हर पल नवीन है यही सुध खुद में लाएं बन प्रकृति का हिस्सा खुद भी नवीन दृष्टि यह पाएं..........   जीवन अपना नई लिखावट में , लिखा हुआ खत हो नए साल की आमद कुछ-कुछ ऐसी हो।   सुख-दुःख दोनों सम हो जाए जीवन का गणित सध जाए हँसना-रोना दोनों जायज़ जीवन न नीरस हो पाए ..........   जैसे चैन से कटी जिंदगी , आगे भी ऐसी पत हो नए साल की आमद कुछ

शुभ दीपावली

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🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔 आओ तिमिर का जाल हटाएं मिलजुल प्रकाश का पर्व मनाएं। फैले प्रीत की अप्रतिम आभा  द्वेष कलह कहीं टिक न पाए  सुख-समृद्धि फैले चहुं दिस  द्वार पर तोरण पुष्प सजाएं  आओ तिमिर का जाल हटाए  मिलजुल प्रकाश पर्व मनाएं। अपने घर की सुधि तो सब लें  पड़ोसी भी कोई भूखा न सोए अहम से बढ़ दुश्मन नहीं कोई  इस रावण की बलि चढ़ाएं आओ तिमिर का जाल हटाएं मिलजुल प्रकाश पर्व मनाएं। कर्मठता में बल है अद्भुत  अपने पर विश्वास जो लाएं  मांगे गणेश से रिद्धि-सिद्धि  लक्ष्मी के आगे शीश झुकाएं आओ तिमिर का जाल हटाएं मिलजुल प्रकाश पर्व मनाएं। 🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔🪔 .........मुकुल अमलास  (चित्र गूगल से साभार)

उऋण

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उऋण अब  जीवन लगता पूर्ण  पाती उसमें जिंदा  खुद को वही रंग वही रूप  वही संवेदना वही करुणा  वही रिश्तों की परवाह  वही जिंदगी की समझ  वही सुरुचि वही अभिरुचि  मैं रहूँ न रहूँ  धरती पर  कहाँ है कोई कमी जीवन का सातत्व   अब दिखता स्पष्ट बेटी बड़ी हो गई  संभाला उसने घर आँगन  फिर बना एक आशियाना  घरौंदे में गूँजा जीवन संगीत  संभाल लेगी सब व्यवधान  सजा देगी सारे अरमान  विश्वास थीर हो रहा  मुक्त हूँ अब  जीवन मोह से चुक गया स्त्री होने का कर्ज़  बेटी माँ को कर देती   उऋण  लोक-परलोक के सारे ऋणों से।              ..............मुकुल अमलास  (चित्र गूगल से साभार) 

#हिंदी दिवस के अवसर पर लिखी गई कविता "माँ का श्रृंगार हिंंदी" ...................

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         माँ का श्रृंगार हिंदी     कैसी अज़ब कहानी इसकी कैसा गजब फ़साना अपने ही देश में रह गई हिंदी बन कर बेगाना।   समझा   जाता सदा उसे   तो अपढ़ों की भाषा सर पर रख सब हैं नाचते सदा विदेशी भाषा।   अंग्रेजी  की  दुम पकड़ सब आगे बढ़ते  जाते हिंदी बोलने  वाले  सदा अपनी  लाज  बचाते।   अपनी भाषा का अवमूल्यन हृदय में घाव करेगा मेधा के होते   भी जब   कोई आगे नहीं   बढ़ेगा।   काश कि जिस में सोचा करते उसमें  ही लिखते-पढ़ते सहज-सरल अभिव्यक्ति का इसे सशक्त माध्यम पाते।   निज भाषा बिन कोई  देश क्या कभी आगे  बढ़ा है दूसरों   की   संपति से   कोई कहां धनवान  बना है!   कमी नहीं कुछ इस भाषा में चाहे हो कोई भी पैमाना बोली-लिखी जाती एक सी शब्दावली से भरा खजाना।   बनी रही  यह आस  अधूरी हिंदी को  सब अपनाते राष्ट्रभाषा का  देकर दर्जा  भाल पर अपनी सजाते। कब तक  रहेगा भारत माँ  का यूँ ही श्रृंगार अधूरा लगा  माथे पर हिंदी की  बिंदी  करें उसे अब पूरा।                   .............मुकुल अमलास..........                         (चित्र गूगल से साभार)

गाँव का सीधा सच्चा जीवन कितना लुभावना ! एक दृश्य प्रस्तुत है ...

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ठिठकी सी चाल  झुकी-झुकी सी नज़र  नई-नई दुल्हन  शर्माए रह-रह कर सांवली सूरत  निकली सज-संवर चहरे पे लाज  करधनी बंधी कमर गाँव की गोरी  टेड़ी-मेढ़ी डगर चली सखी संग  झुनझुन बाजे झांझर पनघट की चौपाल  कानाफूसी का संसार  बिन बात हंसी  छलकती गागर नटखट साजन  मारे तीर नजर  सिहरे तन-मन उड़ा जाए आंंचर रैन बड़ी भारी थी मुख पे फैली काजर  गालों के दाग देख  पड़े बोलों के खंजर  नेह का वादा  सैंया का लाड़ लाया नाथुनियाँ  पहनाई हार  भूल गई बाबूल की गली  भूली अम्मां का प्यार  प्रीतम की नगरी में बसा नेह का संसार  | 

आज विश्व कविता दिवस और साथ ही ओशो का संबोधि दिवस भी.........तो एक कविता सदी के इस महानतम संबुद्ध के नाम......

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  जिंदगी के पन्ने कोरे सादे स्लेट से थे जिंदगी के पन्ने फिर ना जाने कब रब ने घीस दिया उसे छोटे बच्चे के हाथ में आई पहली कलम और किताब की तरह हर कहीं अब बस आड़ी-तिरछी लकीरें पथ ही पथ कोई पड़ाव नहीं उस पर चलते-चलते अब थका मन हारा अस्तित्व कुछ राहें कहीं नहीं ले जातीं चाहे चलते रहें जीवन भर बेहतर यह जल्दी समझ हम बदल लें राह दूसरों को बदलने की आशा छोड़ बनाएं ख़ुद को कुछ बेहतर तो चल पड़ी अपनी ही परछाई के पीछे खुद को तलाशती हुई परछाई के नाक-नक्श नहीं होते तो कैसे पहचानती खुद को सिर्फ़ होता आकार वह भी रहता घटता-बढ़ता फिर खुला भेद अपनी मूर्छा का कि किस बूते दूसरे को समझने का दावा करते हम जब खुद से खुद की दूरी तय करना हो मुश्किल तो मैं अपने घर को छोड़ निकली ऐसे जैसे शरीर से निकलने के बाद मृत शरीर को देखती सोचती हो आत्मा क्या यह मेरा ही शरीर था और फिर मैं ने अपने 'मैं' को मारने की शुरुआत कर दी। .......मुकुल अमलास....... (चित्र गूगल से साभार)

नव वर्ष की शुभकामनाएं सभी को नये साल की इस कल्पना के साथ.........

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  नया साल ऐसा हो सोने सी हो सुबह सुनहरी चाँदी सा चमचम दिन हो सुरमई संध्या धरा पे उतरे अलासाई सी स्याह रैना हो अपनी तो है यही कामना नया साल ऐसा हो........। इंद्रधनुषी हो जीवन सबका चहुँ दिश सुख-समृद्धि हो चाँद सभी के अँगना उतरे स्वप्न वंचित न कोई नैना हो अपनी तो है यही कामना नया साल ऐसा हो.........। रोग-शोक से बचे रहें सब न कोई विपदा आफ़त हो हँसी-खुशी लौटे जीवन में सब कुछ सामान्य-सरल हो अपनी तो है यही कामना नया साल ऐसा हो......। महकी-महकी चले पुरवाई सुरभित वन-उपवन हो राह कठिन हो कितनी भी पर अपना साथी अपने संग हो अपनी तो है यही कामना नया साल ऐसा हो.........। रोज छुएँ हम नई ऊँचाई गिरने का न कोई भय हो साहस संयम संकल्प की शक्ति अजर अमर हो अपनी तो है यही कामना नया साल ऐसा हो.........। जीवन समझ बस एक नाटक हम निभा रहे भूमिका हों जितना बन पाए जिससे भी उतना बेहतर अभिनय हो अपनी तो है यही कामना नया साल ऐसा हो.........। खोना-पाना सब बेमतलब जीवन समतल समरस हो कर्त्ता भाव को छोड़ सकें ऐसी सम्यक दृष्टि हो अपनी तो है यही कामना नया साल ऐसा हो.........। .........मुकुल अमलास (तस्वीर गूगल से