गर्मी की छुट्टी मौका देती है भ्रमण का , अपने गाँवके भ्रमण के बाद लिखी गई यह कविता, प्रस्तुत कर रही हूँ----



अपने गाँव की यात्रा

गाँव भी वही और घर भी वही
बस बीच में है समय का एक लंबा अंतराल
बहुत दिनों बाद अपने बचपन से मिलने
आ पहूँची हूँ अपने गाँव,   
एक जमाने में खानदान की शान
हमारे दलान का खंडहर
एक मलवे के रुप में पड़ा जैसे रो रहा है,
न तो बाबुजी का धीर-गंभीर स्वर 
न उनकी सारगर्भित बातों को सुनने बैठे
उन्हें  घेरे, लोगों की जमात,  
दादी के पूजा घर से उठती
न तो सुगंधित धूप की महक
न घंटी की टुनटुन,
माँ के पळंग का सूनापन
हृदय को जैसे निचोड़ रहा है
मेरी नजर सदा उनके साथ रहने वाले
पनवट्टे को ढूँढ़ रही है, 
जिस सोफे पर बैठ घंटों
बाबुजी से बातें होती थी
वह टुटा पड़ा है। 
घर जो कभी हवेली कहलाता था, 
पर हम बच्चों के लिये किसी महल से कम नहीं था,
उसकी दिवारें चटक गईं हैं
और छत का प्लास्टर उतर गया है,  
घर का कोना-कोना बिते दिनों की
कहानी कह रहा है
और एक संवाद हमारे बीच में चल रहा है,
सामने पड़ा नारियल का ठूँठ
मेरे मन को तड़पा रहा है
इसका ठंडा पानी कभी गले के साथ-साथ
आत्मा को भी तर कर जाता था,   
सामने है गाँव का तालाब
अब पक्के हो गये हैं इसके घाट,  
पड़ इसकी वह शीतलता कहीं खो सी गई है
जिसमें मेरा बचपन सराबोर था,  
आम का बगीचा अब सिमट कर छोटा हो गया है
आम तो लगे हैं पर बगीचे की अनोखी खुशबू
कहीं विलीन हो गई है
जो मेरे अस्तित्व के हर कोने को रोमांचित कर जाता था,
कहाँ है वो मचान और झुले
जहाँ हम भाई-बहन अठखेलियाँ किया करते थे,
अब पेड़ों में क्यों नहीं लगते वे गोपी आम
जिसे पाना थी हम बच्चों के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि और सम्मान।   
आँगन में बैठ अपने मन को समेटने की एक कोशिश
हटात तभी लाठी टेकता एक बूढ़ा आ बैठता है पास
लगा, समय ने अपना परदा फाड़
जैसे अतीत को ही मेरे पास भेज दिया हो
सामने खड़ा है कृपाली
जिसने इस हवेली के तीन पीढ़ियों की सेवा की
आज अपने शरीर से है लाचार  
उसकी लाचारी की कहानी कह रही हैं
उसकी डबडबाई हुई आँखें,
अब मुझसे मजदूरी नहीं होती,
बेटा और बहु खाना नहीं देते
और इस हवेली में अब कोई नहीं रहता
जिसका था सहारा मुझे,
एक बार फिर मेरी आत्मा मुझे कचोटती है
और अपनी लाचारी झकझोड़ती है,
क्या अब समय है सिर्फ आँसू बहाने का
और अपने मन को समझाने का
कि पतन के बाद
फिर सृजन होता है और
कुदरत अपनी कहानी दोहराती है
क्या कोई भवन सदा खड़ा रहा है!
या कोई बच्चा बूढ़ा होने से बच सका है!
झटके से उठ खड़ी होती हूँ
कुछ रुपये उसे थमा
यादों की थाती को बटोर
अतीत के गुह्य से बाहर निकल आती हूँ,
माँ-बाबुजी से न सही
उनसे संबंधित चीजों से तो मिल आई हूँ
घर, आँगन, दलान, गलिचा,
कुर्सी, टेबुल, पलंग और बगीचा
यहाँ की हवा में फैली है
उनके अस्तित्व की खुशबू,
उनकी स्मृतियाँ चारों और बिखड़ी पड़ी है
सबसे गले मिल
मन भर लिया है अपना,  
भले ही आँखें डबडबाई हैं मेरी
और गला रुधाँ है मेरा 
पर हृदय नहीं है खाली
उसमें समेट ली मैं ने
उनकी मधुर यादों की मंजूषा
और ले ली है विदा चलने को
अपने घर, शहर की ओर। 

         ........मुकुल अमलास 

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