जब भी ये शाम घिर के आती है

जब भी ये शाम घिर के आती है 



जब भी ये शाम घिर के आती है
कोई मेरे इर्द गिर्द  आ जाती है
शाम के फीके, उदास मंजर को
अपने हाथों से सहला  जाती है ।
समेट कर मुझको अपने पहलू में
अंधेरे साये से निकाल लाती है
फुसफुसाती है वह मेरे कानों में
कुछ  अस्फुट सा कह जाती है ।
कौन है वह जो मेरे पूजा घर में
आशा की लौ सी जला जाती है
करूं कितनी भी कोशिश फिरभी
कोई पहचान नहीं निकल पाती है ।
मैं अपनी इस कल्पना की देवी को
मन के  मंदिर में कैद   कर लूँगा 
बेदर्द जमाना भले ही कहता  रहे
हाय दीवाने की कैसी बुतपरस्ती है | 

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