गंध कई तरह के होते हैं कुछ हमें उन्मत बना देती हैं तो कुछ बेकल पर हर हालत में हमारी अंतर्यात्रा में हमारी सहायक होती है ......
गंध
ताप से बेकल आँगन में
पानी छिड़क कर बुहारती वह
डूबी जाती है
मिट्टी से उठती सोंधी महक में
भूल जाना चाहती है शहर का अकेलापन
समेट लेना चाहती है
देहात के अपनेपन की गंध को अपने मन में
गाँव की सीमांत से गुजरते हुए
आम की गाछी से आती खुशबू में भिंगी
आश्चर्य में पड़ी है वह
कहाँ से आती है यह महक
किस पेड़, किस फूल, किस पत्ते से
कहीं और क्यों नहीं है
गाँव की यह गंध
जब से वह प्रेम में पड़ी है
उसके तन-मन से उठती है
प्रेम की सुवास
एक मादक गंध
जो उसके आसपास को महकाता है
प्रेमपाश में आबद्ध प्रेमी-युगल के शरीर से
उठती है एक स्वर्गीय सुगंध
जो चहूँ दिशाओं को पवित्र बना देती है
इस प्रेमपाश में बंधी वह सोचती है
क्या यही है वह प्रेम की गंध
जिस पर ब्रह्मांड टिका है
बजती घंटियों
उठती धूप की सुगंध से व्याप्त मंदिर
के एक कोने में बैठी वह
सारे चहल-पहल से हो गई है दूर
बंद आँखों से बहते हैं आँसू
पर शरीर कहीं खो गया है
धूप और अगरू की सुगंध से
आविष्ट है उसका मन-मस्तिष्क
महसूस होता है
ईश्वर के अस्तित्व की गंध
अपने करीब
चारों ओर व्याप्त
सुगंध की तरह
पद-प्रतिष्ठा की चोटी पर बैठी
गर्वीली स्त्री
निहारती है
ममताहीन अपने फटे पल्लू को
एक दूधमुँहें शिशु के शरीर से आती
दूध की मीठी खुशबू ने उसे
एहसास करवाया है
अपनी दरिद्रता का
परफ्यूम को छिड़क
अपने बांझपन को ढंकना चाहती है
पर
एक स्त्री के जीवन की
सबसे बड़ी साध
दूध से गीले अंगिये से उठती
मातृत्व की गंध
एक लड़कौरी का आँचल
बाज़ार में कहाँ से ख़रीदे वह !
---मुकुल कुमारी अमलास
(चित्र गूगल से साभार)
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