आज छुट्टी के दिन बिल्कुल खाली बैठी हूँ तो इस खालीपन के ही नाम कुछ लिखा है,पेश है..........
रिक्तता
आँख बंद करते ही
वास्तविक दुनियां
विलीन हो जाती है
पर सामने होते हैं
अनेक रंगों की
आभायें
कभी लाल, कभी पीली, कभी नीली
उस अंधेरी दुनियाँ
को ग़ौर से देखती हूँ
पाती हूँ धब्बों और
रेखाओं का एक अनंत सिलसिला
हिलता एक दूसरे में
मिलता
निरंतर गतिमान
रंग और धब्बे मिल कर
एक खेल सा खेलते हैं
जैसे हो वह कोई
मॉडर्न पेंटिंग का नमूना
गतिेशीलता सिर्फ बाहर
नहीं अंदर भी है
आँखों के अंदर, विचारों के अंदर
कहाँ कभी हम होते खाली
उठता ही रहता विचारों का बबंडर
धाराशायी होते ही रहते सपनों के महल
आँख मूंद लेने से कुछ न होगा
क्या पात्र को सिर्फ उल्टा कर देने से
वह खाली हो जाता है
कुछ न कुछ भरा ही रहता है
भले दिखाई न दे
चाहे वह हो सिर्फ विचार रूपी हवा ही
बहुत खेल लिया यह खेल
चलो अब शुरु करते हैं
अपने को खाली करने का एक नया खेल
सारे कचरों को बाहर फेंक
अंदर से हो जायें बिल्कुल स्वच्छ
निर्द्वंद, रिक्त
शून्य की भाँति
चलो ढूँढते हैं
उस क्षण, उस पल, उस अवस्था को
जब एक चुप्पी में लिपटे हों हम
पर न हो कोई उदासी और ग़म
खाली हों अच्छी तरह से
पर पूरे भरे हों अपने स्व से ।
--- मुकुल कुमारी अमलास
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