क्या वह दिन आएगा?


क्या वह दिन आएगा?



मैं...............
.......नहीं हम
.......नहीं सब
बंद है घरों में
अब जाना इस सच को
जब तक बाहर से घर और घर से बाहर
आने जाने की ना हो सुविधा
घर भी घर नहीं रह जाता
बन जाता है पिंजरा
चारों ओर पसरा है सन्नाटा
उदासी और बेबसी का
एक अदृश्य निराशा के धुंध में खोए
करते सब कल्पना
आएगी वह सुबह
जब एक सूक्ष्म विषाणु
जो बन गया है
दुनियां का सबसे बृहदाकार प्राणघातक दैत्य
मर चुका होगा
पा चुके होंगे हम विजय
आजाद होंगे उसके चंगुल से सब
उस दिन ......
सूर्य अधिक चमकीला होगा
और दिन अधिक कांतिमान
खुली हवा को फेफड़ों में भरने दौड़ पड़ेंगे
नौजवान सड़कों पगडंडियों पर
दिहाड़ी मजदूर आशा से भरे होंगे
आज मिलेगी दिनभर की मजदूरी
और भरपेट भोजन
बच्चे खिलखिलाते कर रहे होंगे
चुहलबाजी पार्कों में
बुज़ुर्ग अपनी आंखों की रोशनी को बढ़ाने
चल रहे होंगे हरी घास पर
महसूस करते उसकी ठंडी और जीवंत स्पर्श
क्या वह दिन आएगा?

....... मुकुल अमलास.......

फोटो गूगल से साभार 

टिप्पणियाँ

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में शुक्रवार 27 मार्च 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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