अपराधबोध



अपराधबोध 

चिथड़ों में लिपटे 
बचपन को देख 
मैं हो जाती हूँ 
किंकर्तव्यविमूढ़ 
समझ में नहीं आता 
क्या करुँ 
मांगने को उठे हाथ पर 
कुछ पैसे थमा
अपनी दया दिखला दूँ
या डांट कर उसे भगा दूँ
'भीख मांगते शर्म नहीं आती आलसी कामचोर कहीं का'
पर कुछ करते नहीं बनता
भीख मांगना है
उनकी मजबूरी या अपराध 
मैं नहीं जानती
पर सोचती हूँ 
मेरा दिया एक सिक्का
उनकी जिंदगी तो नहीं बदल सकता 
न मैं व्यवस्था बदल सकती हूँ 
न उनका भाग्य
पर उन्हें देख हर हाल में
मैं स्वंय अपराधबोध से ग्रसित हो जाती  हूँ 
जैसे हो यह मेरा ही अपराध 
कि मैं एक आराम का जीवन बिताती हूँ 
मनपसंद खाती हूँ 
जीने के लिए जरूरी हर सहूलियतों का
लाभ उठाती हूँ 
आखिर क्यों होता है मुझे 
एक पाप का एहसास 
हर बार जब मैं
उनके पास से गुजरती हूँ ?

---मुकुल अमलास---




( चित्र गूगल से साभार) 

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