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क्या सबकुछ मर रहा है ?

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क्या सबकुछ मर रहा है ? ढूँढ़ती हूँ प्रकृति को अपने निश्छल रूप में पर कहीं नहीं दिखती वो सुबह सैर पर निकलती हूँ दिखता है कचरे और प्लास्टिक के जलते अवशेष उस धूएँ में मेरा दम घुटने लगता है खोजती हूँ स्वच्छ हवा जो प्राण भर दे फेफड़ों में देखना चाहती हूँ दिव्य सूर्योदय पर दिखते हैं आसमान में केबलों और बिजली के तारों के जाल उससे झाँकता छोटा सा सूरज जिसने खो दी है अपनी भव्यता ढूँढती हूँ धरती पर कोई कोना जो अनछुआ हो मानवीय हस्तक्षेप से कोई सीमांत वन प्रदेश अपने पूर्ण जंगली और देशी रूप में अपनी सुंदरता बिखेरते हुए सुनना चाहती हूँ प्रकृति का वास्तविक संगीत पत्तों की सरसराहट पक्षियों के पंखों की फरफराहट भौंरों की गुनगुनाहट किसी वेणुवन में वेणुओं के आपस में टकराने से होती सरगोशियाँ देखना चाहती हूँ नीला, स्वच्छ आसमान जो दिखता है हर ओर मटमैला जीना चाहती हूँ एक ख़ालिस आदिम जिंदगी हर बनावट से दूर अपनी पूरी वास्तविक स्वरूप में सभी पूर्वाग्रहों और सभ्यता के चोगों से अनावृत पर सब कुछ है अपने नियंत्रण से बाहर धुंधला, मटमैला, गन्दा,