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बचपन से ही जब भी आसमान की ओर देखती हूँ कुछ भाव मन में उमड़ते घुमरते हैं आज उनको शब्दों में पिरोने की कोशिश की है ............

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बादलों की खेती  नीला  आसमान और उसमें बादलों के खेत लगता है अभी-अभी कोई देवदूत हल चला कर गया है बादलों के छोटे -छोटे टुकड़े  बिखरे पड़े हैं चारों ओर  जी करता है उड़ कर जाऊँ और उसमें अपने सपनों के बीज बो दूँ मेरे सपने जो कई रंगों कई रूपों के हैं  जब सपनों के फसल लहलहायेंगे उसमें प्रेम के फल लगेंगे   सुंदर प्यारे-प्यारे आनंद के फूलों से  यह बगिया भर जायेगी  मैं अपनी अंजलि में  उन फूलों को भर भर कर धरती पर उलीचूँगी फिर धरती से सारे दुःख बिदा हो जायेंगे  न होगी घृणा, न नफ़रत, न वैमनस्य इन बादलों से मोती टपकेंगे  पानी की बूंदें बन कर धरती गीली हो जायेगी  ऐसे मिलन होगा  ज़मीन  और आसमान का  और धरती से अंकुर फूटेंगे  जीवन की पहचान बन कर ।                                                                                 -मुकुल कुमारी अमलास (चित्र गूगल से साभार)

एक छोटे से शिशु को गोद लिजीए उसे कलेजे से लगाईए और कुछ देर के लिए आँखें बंद कर लिजीए सच कहती हूँ पारलौकिक अनुभव होगा । थोड़ी देर के लिए आप खुद को भूल जायेंगे और महसूस यूँ होगा जैसे आत्मा की शुद्धी हो गई ।आज इसी शिशु को समर्पित है यह कविता ........

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शिशु एक शिशु में   भगवत्ता संपूर्णता से उद्घाटित होता है  निश्छल, निर्बोध, सरल, सहज शिशु  प्रकृति का अनुपम  वरदान  उसके चेहरे का स्मित हास हृदय में कैसी हूक जगाता है बार बार चेहरे का भाव बदलना कभी पलकों का हिलना  कभी भौंहों का विन्यास बदलना  कभी रोना कभी हंसना कैसा निश्छल रुप मन भर भर आता है बाहें कलेजे से लगाने को बेकल हो उठती हैं  हृदय ममता की वर्षा से भींग जाता है  कितनी प्यारी छवि ईश्वर साक्षात् शरीर रुप में पहचान और अपहचान से अनभिज्ञ शिशु  सबको समान रुप से अपनाता है मनुष्य अपने शुद्ध रुप में  शिशु रुप में ही तो रहता है शायद इसीलिए हर बच्चा सुंदर होता है ।                                                -मुकुल कुमारी अमलास 

मेरे सपनों का घर

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मेरे सपनों का घर मेरे सपनों का घर हाँ सपनों सा ही सुंदर सपने भी वास्तविकता में तब्दील हों ऐसा क्षण जीवन में कम ही आता है  कितनी उत्कंठा कितना परिश्रम एक यज्ञ ठानने सा संकल्प फिर बिना विध्न के उसे पूरा कर लेने की तड़प  क्या कोई यज्ञ बिना बाधा के पूरा हुआ है  कैसे – कैसे रोड़े कैसी – कैसी समस्याएं हाँ , इस यज्ञ में हवन हो गये जीवन के कई साल और बनाना पड़ा खुद को ही समिधा की सुखी लकड़ी तैयार दिन भर की भागम-भाग और रातों का हिसाब-किताब बेहिसाब साधन-सामग्री को इकट्ठा करने का संताप भूख प्यास और ताप  सीसे में दिखी वो पहली झुर्री जो आँखों के किनारे पड़ी थी लेकिन बिना बलि के यज्ञ पूर्ण कैसे हो  यज्ञ सम्पन्न हुआ मनचाहा मिला वर सपनों से भी बढ़ कर | मैं रहूँ न रहूँ अब लेकिन रहेगा मेरा घर मेरा परिश्रम अपने मूर्त्त  रुप में मुझसे भी लंबी आयु लेकर  है यह बच्चों को अपनी ओर से दिया गया उपहार उनका पनाहगार  अब है संतुष्टि सर पे अपना घर होने का एहसास इस धर

चाँद पे लिखना कवियों का पसंदीदा शग़ल है मैं भी इस सम्मोहन से मुक्त कैसे हो सकती हूँ | चलिये आज कुछ चाँद के बहाने ही सही............

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आवारा चाँद कल रात चाँद मेरी खिड़की से एक आवारा लड़के सा झांक रहा था उसके नज़रों की तपिश मेरे अंग-अंग को जैसे भेद रही थी कैसा बेसब्रा हो घुस आया था वह अंधेरे कमरे में भी कैसे समझाती उसे मैं कि इतनी आवारगी अच्छी नहीं  मैंने परदा सरका दिया तो वह फुसफुसा उठा  कुछ गुनगुना उठा उसका  झीना झीना रूप मुझे प्यारा लगा परदे की ओट में फिर हम घंटों बातें करते रहे मेरी आंखों में निंद नहीं थी और उसे तो रतजगे की आदत थी रात गहराती गई हमारी बातें खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थीं उसकी बातों में मिठास थी गहरी अंधेरी रातों के एक से बढ़ कर एक क़िस्से  उसकी ज़ुबान पर थे कि कैसे रात को फूल और पौधे आपस में बतियाते हैं कैसे तारे जासूसी करते हैं कैसे परियाँ धरती पर उतरती हैं  कैसे हवायें अपना रेशमी आँचल लहराती हैं   कैसे मानव रातों को बहुरूपीये सा अपना खोल उतारते हैं रात की तिलिस्मी दुनियाँ का असर धीरे धीरे मुझ पे तारी था और सच कहती हूँ कुछ पल को चाँद मेरे संग धरती पर उतर आया था ।                   

मिथिलावासी होने के नाते सीता ने जो दुःख सहा कहीं न कहीं मुझे भी सालता है यह दुःख और राम से कुछ प्रश्न करने की बार बार इच्छा जगती है | आज जब दशहरा के दिन जगह जगह रावण को जलाने की तैयारी चल रही है, रोक न सकी खुद को उन प्रश्नों को पूछने से .....

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कैसे कहूँ तुम्हें मर्यादा पुरुषोत्तम सीता धरती में समाई अगर सीता को धरती में समाने के सिवाए क्या था कोई उपाय ! जिस राम के ख़ातिर वन वन भटकी दिया साथ जिसका हर घड़ी हर पहर उसी राम ने छोड़ा साथ दिया वन गमन की तड़प हे राम !  क्या हृदय पर हाथ रख कर कह सकोगे कि सीता के हृदय में तुम्हारे सिवाय कोई और था ? या फिर यह कि रावण ने अगर सीता का किया हरण तो इसमें सीता का क्या दोष था ? अगर नहीं था दोष  तो सीता की अग्नि परीक्षा क्यों ? सीता को किस पाप का दंड ? राम , दुनियाँ कहती होगी तुम्हें मर्यादा पुरुषोत्तम मैं न कह सकूँगी तुम मर्यादा पुरुषोत्तम तब होते जब  सीता को हृदय से स्वीकारा होता यह जानते हुये भी कि जिस पापी रावण ने सीता को छुआ वो सीता का शरीर था उसकी आत्मा तो निर्मल है और उसमें सिर्फ राम समाया है सीता ने तो अपने आत्मबल से कर ली थी रावण से अपनी मर्यादा की रक्षा पर तुमसे न कर पाई इसकी रक्षा एक स्त्री की मर्यादा को रावण ने नहीं किया भंग एक पति ने किया भंग एक निर्दोष गर्भवती को गृहत्याग की आज्ञा दे कर तुम्हारे

किसी प्रिये का जीवन में होना एक वरदान है और इसका महत्व वही समझ सकता है जो इस वरदान से वंचित है | चलिये इसी बहाने एक कविता सबके लिये........

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एक कुमुदिनी कुम्हलाई सी  तुम हो मेरे पूर्ण पुरुष से  मैं एक अतृप्त अभिलाषा सी  तेरी छुअन मुझको है लगती  देह की कोई परिभाषा सी । संग संग मैं तेरे चलूँगी  बन कर एक परछाई सी  तेरे बिन मेरी क्या हस्ती  तितली इक बौराई सी  । तेरे बिन सूना यह जीवन  जैसे  बगिया बिन फूलों की तेरे बिन जब सांसें चलती लगती दुनियाँ हरजाई सी । तुम मेरे अस्तित्व पे छाये  जैसे किरण हो सूरज की  तेरी किरण से खिल उठती मैं जो थी कुमुदिनी कुम्हलाई सी ।                                                                                        मुकुल कुमारी अमलास           ( चित्र गूगल से साभार ) 

ग़ज़ल को कुछ लोग उम्दा साहित्य नहीं मानते पर उसमें जो रूमानियत है उसका क्या कोई जबाब है ? कौन है जो जीवन में एक बार इस रूमानियत के दौर से नहीं गुजरा है ! आज इसी रूमानियत को समर्पित कुछ गजलें..........

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गज़ल याद जो तेरी आई तन मन महक गया                    दिल के बाग़ में जैसे गुलाब खिल गया ।                  मन का आसमां सज कर सिंदूरी हो गया  चाहत का रंग जबसे जीवन में बिखर गया । कह दो हवाओं को तुझे छूकर न पास आये  आफत में तुम पड़ोगे अगर मैं बहक गया । जीना मेरा अब हो गया दुश्वार तेरे बिना  जब से तुझे देखा और आँखें मिला गया । एक मेहनती आवाम था मैं कभी मगर  तेरा इश्क मुझको  निकम्मा बना गया । आओ आकर देख लो जो दिल का हाल है  आज तेरी फ़ुर्कत कैसे मुझको रुला गया ।                                                                           मुकुल कुमारी अमलास ( चित्र गूगल से साभार )       

चाहत जिंदगी को रंगीन बना देती है और अगर मन पसंद साथी मिल जाये तो जिंदगी सँवर जाती है, फिर चलता है रुठने और मनाने का सिलसिला कुछ ऐसी ही प्रेम कथा इस कविता में .........

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जिंदगी सँवर जाये रात भर नींद न आई तेरे तसव्वुर में  सुबह हुई तो सोई फिर तेरे सपने आये  छोटी सी नैया हूँ मैं किनारे की चाहत है  तेरे हाथों में हो पतवार तो साहिल मिल जाये  रात बड़ी गहरी है तनहाई का आलम है  यादों के मेले से क्यों न फिजा रोशन हो जाये  चाहा है तुझे टूट के तू ही मेरा हमदम है  ऐ रब कर कुछ ऐसा तुझको ये खबड़ हो जाये  तुझको छू के आती है जो ठंडी हवा  तू ही बता क्यों न अंग- अंग मेरा सिहर जाये  अकेले चल चल के थक गये हैं पाँव मेरे  आ मेरे क़रीब आ कि अब तो मंजिल मिल जाये जी करता है कि जी भर के तुझे प्यार करूं  सारी रंजिश तेरी हमेशा के लिये कहीं खो जाये जी में आया है कि सपनों का एक घरौंदा बने  हम तुम एक साथ रहें और जिंदगी सँवर जाये ।                                                                      मुकुल कुमारी अमलास  ( चित्र गूगल से साभार ) 

एक स्त्री अपने घर के लिये कितना कुछ देती है क्या इस बात के लिये हम उसे कोई श्रेय देते हैं ! थकी हारी हुई स्त्री अपनी प्रतिभा को कुंठित करती घर को स्वर्ग बनाने में जुटी रहती है। हर हालत में वह सृजन ही करती है लेकिन इस रचना को क्या संसार का उचित सम्मान मिल पाता है !

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स्त्री और कविता आकाश में उमड़ते घुमड़ते बादलों की भाँति मस्तिष्क में विचारों की बदलियाँ बेचैन कर रही है मुझे अभिव्यक्ति के लिये पर मेरे हाथों में कलम की जगह चाकू है बहुत तेजी से हाथ चल रहे हैं मेरे सब्जियों पर मेरी रसोई अभी अभी दाल में लगाये गये बघार से महक रही है वहीं मन में एक सुंदर सा विचार कौंधता है कहीं भूल न जाऊँ काश मैं इसे लिख पाती पर अब वो आते होंगे खाना तैयार नहीं हुआ है घर के और ढेरों काम बाकी हैं पसीने की गंध और मसाले की महक में डूबा शरीर लिये मैं घर भर में घुम रही हूँ जल्दी जल्दी काम निपटाने में लगी हूँ शायद आज थोड़ा समय मिल जाये और लिख ही डालूँ उस अधूरी कविता को जो कब से मेरी फुरसत का इंतजार कर रही है पर घर, बच्चे, पति, सास, ससुर की जरूरतों को पूरा करते करते शाम होते होते मैं थक कर लस्त-पस्त हो जाती हूँ फिर मेरी कविता वैसी ही अस्त-व्यस्त सी रह जाती है जैसी खुद मैं  लेकिन अपने को कुंठित करती अपने घर को शाम होते होते एक कविता की भांति सुंदर रूप जरूर दे देती हूँ  रचनकार तो वही रहता है  कैनवास बदल जाता है |                  मुकुल

नृत्य का भी अपना आनंद है परंतु कुछ लोगों को इसका अनुभव ही नहीं | बिना किसी नियम में खुद को बांधे शरीर को थिरकने दिजीये और फिर देखिये जीवन के इस अनुपम आयाम का आनंद ................

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नृत्यमय संसार  हम भूल गए हैं नृत्य  जो है नैसर्गिक गुण  शरीर की थिरकन का आंनद  कहीं खो गया है  बचा है वह सिर्फ वहीं  जहाँ प्रकृति बची है अब भी  अपने निर्दोष रूप में  बच्चा जब खुश होता है  उसके पांव स्वतः थिरकते हैं  आदिवासी किशोरियाँ नृत्य से करती हैं खुशी का इजहार  कोयल की कूक  फूलों से लदी डालियां  आमों की वौर  भौंरों का गुंजन   झूमते ही रहते हैं  इन्होंने तो नृत्य नहीं छोड़ा  सभ्य कहलाने वाले मानव ने लेकिन  गंभीरता का चोगा पहन रखा है   और चूक गया है उस आनन्द से  जो है उसकी  थाती  आनंद की कीमत पर  सभ्यता का टीका  बहुत बड़ी कीमत चुकाई  है  उसने अपने विकास का  क्यों नहीं बन सकते हम  निर्दोष और निष्छल  या कह लो जंगली या आदम  शरीर का पोर पोर  जब थिरकता है   हम हो जाते हैं  एक शिशु से निर्दोष  असीम आनंद में लीन और पहुँचते हैं  उसके कुछ और करीब  जो है इस समस्त संसार को  नचानेवाला ।                          मुकुल कुमारी अमलास                (चित्र गूगल से साभार) 

आज रक्षाबंधन के दिन बचपन की बड़ी याद आई, सावन मायके की याद दिला ही देता है, उन्हीं दिनों को समर्पित करती हूँ यह कविता ..........

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अब तो सावन सूख गया है  बाबूल की गलियाँ थी बचपन की सखियाँ थी  मेंहदी लगी हाथों में हरी चुड़ियाँ कैसी सजती थी  पल-पल हम जीते थे अपने संग होते थे  खुशियों के सागर में लगाते हम गोते थे  बाबा का प्यार था अम्मा की गलबहियाँ थी  छोटा सा घर था लेकिन महलों सी खुशियाँ थी  चुन-चुन कर बागों से फूलें जो आतीं थीं  रोली और चंदन से थाली जो सजती थी  त्योहारों का मौसम था रिश्तों की बेला थी  भैया की कलाई पर राखी जब सजती थी  जीवन में कितना रंग था जीवन एक बगिया थी  रंगीन कलियों पर बैठी इंद्रधनुषी तितलियाँ थी  सखियों के संग पेड़ों पर झूले जब झूलते  थे कजरी की तानों पर तन-मन  कैसे डोलते थे  अब तो सावन सूख गया है अपना घर जब से दूर हुआ है  मेघा जब घिर कर आती है  जियरा में अगन लगाती है  बीते दिन याद दिलाती है मेरी अखियाँ भर-भर आती है  झर-झर जब आँसू बहते हैं मनुआ बोझिल कर जाती है |                                                                          ..... मुकुल कुमारी अमलास .....

सच्चे प्यार की पहचान आसान नहीं, अक्सर वह भ्रम ही होता है ।प्रेम बड़ी पवित्र चीज है उसमें कोई मांग नहीं होती । उसकी पवित्रता तबतक बनी रहती है जबतक हाथ से छू कर उसे गंदा न किया जाय और यह हाथ किसी का भी हो सकता है ........

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प्यार का भ्रम  प्यार का भ्रम सबसे बड़ा भ्रम होता है  जो हमें गुमराह कर देता है  हम हो जाते हैं उसके अधिन  वह हमारा वर्तमान ही नहीं लेता  भविष्य भी छीन लेता है  कुछ लोग अपनों के भेष में छिपे भेड़िये होते हैं  उसके बड़े नाख़ून दिखाई नहीं देते  न लोलुप निगाहें  जो हमारे मांस को नोचने वाले हैं  उसकी मीठी बोली हमें बरगलाती है   उसके अपनेपन का स्वांग  हम पर जादू कर देता है  और हम हो जाते हैं उसके अधिन  फिर वो बड़े चाव से हमारे   मांस और मज्जे को चूस चूस कर खाता है  और हम रह जाते हैं   एक नर कंकाल मात्र  फिर जिंदगी हो जाती है  रेगिस्तान सी शुष्क, नीरस, निष्प्राण   फिर क़ोई अमृत घट पिलाने वाला  सबकी जिंदगी में नहीं आता प्रेम जब भी वासना का रुप धरती है  प्रेम वाष्प बन कर उड़ जाता है  रह जाती है कोरी लिप्सा  और हम भ्रम में रहते हैं कि  हम प्रेम में हैं ।                                                                                     --   मुकुल कुमारी अमलास                                                                    

उम्र बढ़ने के साथ साथ प्यार का स्वरुप बदल जाता है, वह अदृश्य अवश्य रहता परन्तु लुप्त नहीं ........

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प्यार जिंदा है  चेहरे का लावण्य अब कम हो गया है मासपेशियां शिथिल शरीर का जादू अब नहीं चलता नहीं करता अब शरीर अंतरंगता की मांग हम रहते एक दूसरे से दूर दूर झल्लाते एक दूसरे पर अपनी सहूलियतों को तवज्जो देते लगता है हमारा प्यार कम हो गया है याद आते हैं वो दिन और रातें जब साँसें महकती थी आँखें प्यार के नशे से रहती थी भारी घंटों एक दूसरे में गुम पूरी दुनियां को भूल जाते थे हम समय की धूल में अब धुंधले हो गये वे क्षण अब साथ हो कर भी हम हैं कितने दूर क्या उम्र के इस पड़ाव पर प्यार नाम की कोई चीज नहीं रह जाती बैठी बैठी सोचती हूँ ठुड्डी पे हाथ टिकाये तभी चाय की प्याली ले आते हो तुम साथ साथ चाय की चुस्की लेते होता है पूर्णता का एहसास क्या तुमने दवा ली कहना तेरा कराता है मुझे एहसास अपने प्यार के जिन्दा होने का और मैं उठ जाती हूँ पानी गरम करने तुम्हारे नहाने के लिये प्यार मरता नहीं बस रूप  बदलता है पहले बर्फ सा ठोस था निश्चित आकृति में झलकता स्पष्ट अब पानी सा तरल बन गया है पारदर्शी, झीना झीना एक कोमल सा एहसास भर ।

बचपन से आजतक कल्पना में चाँद को कई कई रुपों में देखा है, जब भी मैं उदास होती हूँ लगता है वह आसमां से उतर मेरे पास आ बैठा है, ऐसी ही मनःस्थिती में लिखी गई कविता ...........

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कभी जो चाँद मेरे सिरहाने आये  कभी जो चाँद आसमां से उतर मेरे सिरहाने आये अपनी चाँदनी की शीतल चादर मुझको ओढ़ाए धीरे धीरे लोरी गाये गहरी नींद मुझको सुलाये जीवन में भोगा न देखा कभी सपनों में ऐसा कुछ मुझको दिखाये बेचैन दहकता मन सावन की ठंढी फुहारों में जी भर नहाये कुछ पल बैठे मेरे संग बन कर मीत मेरा मुझ को दुलराये भूलूँ मैं इस जग की  सारी व्यथा और क्लेश उसके संग उड़ कर इस दुनियां से बाहर फलक तक हो आएं  कभी जो यह चाँद आसमां से उतर मेरे सिरहाने आये ।            .......मुकुल अमलास   (चित्र गूगल से साभार) 

प्रिय बिन ये निःसार है जीवन । अपने प्रिये से बिछुड़ना अपूरणीय क्षति होती है जो जीवन को अर्थहीन बना देती है । किसी अपने को इस दुःख में देख स्वतः ये पंक्तियां उतर आयीं ...............

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प्रिय बिन ये निःसार है जीवन प्रिय बिन ये निःसार है जीवन जल बिन सूखी धार है जीवन रंगहीन  मधुमास है जीवन दुःख,दर्द, संताप है जीवन तरु से विलग पात है जीवन आँसू, रुदन, क्लेश है जीवन कल्प सा लंबा भार है जीवन मरुस्थल का ताप है जीवन बिन बूंदों का बादल जीवन बिन प्राण का तन है जीवन रंग विहीन, बेस्वाद है जीवन तमस है, काली रात है जीवन बिन पतवार की नाव है जीवन दैव का दिया अभिशाप है जीवन विरह की व्यथा, विलाप है जीवन तुम बिन नहीं सत्य यह जीवन सत्य का ढोंग, असत्य है जीवन ।

मेरा सावन सूख गया है, निश्चय ही सावन की रसधार उनके लिये है जिनका मन मीत उनके साथ है, एक विरहिणी के लिये तो सावन भी सूखा ही होता है .............

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मेरा सावन सूख गया है जब से प्रिय तुम दूर हुये मुझ विरहण को छोड़ गये  मन की धरती जलती है  अब बस आँख बरसती है  जीवन का रस सूख गया है  मेरा सावन रूठ गया है । किसके संग मनुहार करूं मैं  किसके लिये श्रृंगार करूँ मैं  रात अंधेरी अमावस की आई  चारों ओर घनी अमा है छाई चांदनिया बादल ओट छुपा है  चाँद मेरा मुझसे रूठ गया है । जीवन में रस राग नहीं है  बस निशा है उषा नहीं है  जिस तटनी के एक ही तट हो  जिस सागर का कोई न तल हो  मेरी वेदना का ठौर नहीं है  प्रियतम मेरा रूठ गया है । जिस फूल पर भ्रमर न डोले  जिस मंदिर में हों नहीं भोले  जिस अमा की भोर नहीं हो  जिस जंगल में मोर नहीं हो  जीवन से रंग छूट गया है  मेरा मधुबन ठूँठ हुआ  है ।

कुछ अनुभव बड़े ही पवित्र और ख़ास होते हैं जिन्हें शब्दों में उतारना तो लगभग नामुमकिन ही होता है फिरभी धृष्टता कर रही हूँ ..........

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ब्रह्मांडीय रति  हम और तुम जब मिलते हैं और होते हैं एक  यह सिर्फ दो शरीरों का मिलना नहीं होता  मेरे पोर पोर में रस बरसता है  और तुम्हारे नस नस में बिजली कौंधती है  जब हम आलिंगनबद्ध होते हैं जब तुम मुझमें समाये होते हो  हम होते हैं एकाकार   और यह एहसास दिलाता है मुझे  जैसे मिलन है यह शिव और शक्ति का  मेरे चारों ओर सूर्य, चंद्र, ग्रह,नक्षत्र बिखड़े पड़े हैं  हम तुम किसी आकाश गंगा में लय हैं  संपूर्ण ब्रह्मांड का आनंद हमारे चारों ओर सागर सा हिलोरें ले रहा होता है  संसार का सबसे सुंदरतम क्षण है यह  शरीर का अणु अणु होता है रोमांचित  सम्पूर्ण सृष्टि है कंपायमान चारों और है असीम प्रकाश का विस्तार  हम नहीं चढ़ रहे होते कोई उत्तुंग चढ़ाई परमानंद के ज्वार में हम बहे रहे होते हैं किसी घाटी में  क्षण थिर हो जाता है  विचार रुक जाते हैं  हमारा स्व विलीन हो जाता है  होते हैं हम हिस्सा सिर्फ उस विश्वजनीनता के  जिसमें है सब समाया  तेरा संसर्ग कराता है मुझे  एकात्मता का एहसास  उस ब्रह्मांडीय रति से  जिसमें लीन है समस्त समष्टि  जल थल न

इस सप्ताह मेरी कवितायें लद्दाख की पहाड़ियों के इर्द-गिर्द घूमती रहीं, इसके अंतिम कड़ी के रुप में प्रस्तुत है यह कविता जो इन पर्वतों से संवाद के रुप में है | आप माने न माने ये पहाड़ियाँ बार बार मेरे लिये उतनी ही सजीव हो उठती है जितना कोई शरीरधारी और फिर होती हैं उससे घंटों बातें ..........

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मानव और पर्वत के बीच एक संवाद महाबोधी ध्यान आश्रम की सेब और खूबानियों की शाखाओं के नीचे बैठी मैं  तकती हूँ  दूर अनिमेष आँखों से चलती हवाओं और चिड़ियों की चहचहाहट के सिवाय कुछ भी नहीं आसपास मई महीने की धूप लद्दाख की ठंड में शरीर को बड़ा सकून दे रही  सामने है वृक्षविहीन नुकीली चट्टानों वाली पहाडियाँ जैसे मुझसे कुछ कहती दो पहाड़ियों के बीच की गहराई मुझे उसके चेहरे की झुर्रियों सी लगती है कितना बुढ़ा होगा यह पहाड़  हम जैसे कितने मानवों को देखा होगा उसने कहीं वह मुझ पर हँस तो नहीं रहा मेरे ध्यान प्रयासों को देख कर या फिर रो तो नहीं रहा यह सोच कर कि तेरा भी होगा वही हश्र जो हुआ अनगिणत मानवों का बुद्ध से मानव विरले होते हैं जो मरते नहीं उस सा महामानव बनने की क्षमता कहाँ तुझ से तुच्छ प्राणी में | अब मैं कैसे चुप रहती कह बैठी उससे ठीक है माना मैं हूँ तुच्छ पर तुमतो सदियों से अडिग आसमान को छूते खड़े हो तेरा भी तो हो रहा क्षरण तेरे अंग टूटे बिखड़े पड़े हैं चारों