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नव वर्ष की शुभकामनाएं सभी को नये साल की इस कल्पना के साथ.........

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  नया साल ऐसा हो सोने सी हो सुबह सुनहरी चाँदी सा चमचम दिन हो सुरमई संध्या धरा पे उतरे अलासाई सी स्याह रैना हो अपनी तो है यही कामना नया साल ऐसा हो........। इंद्रधनुषी हो जीवन सबका चहुँ दिश सुख-समृद्धि हो चाँद सभी के अँगना उतरे स्वप्न वंचित न कोई नैना हो अपनी तो है यही कामना नया साल ऐसा हो.........। रोग-शोक से बचे रहें सब न कोई विपदा आफ़त हो हँसी-खुशी लौटे जीवन में सब कुछ सामान्य-सरल हो अपनी तो है यही कामना नया साल ऐसा हो......। महकी-महकी चले पुरवाई सुरभित वन-उपवन हो राह कठिन हो कितनी भी पर अपना साथी अपने संग हो अपनी तो है यही कामना नया साल ऐसा हो.........। रोज छुएँ हम नई ऊँचाई गिरने का न कोई भय हो साहस संयम संकल्प की शक्ति अजर अमर हो अपनी तो है यही कामना नया साल ऐसा हो.........। जीवन समझ बस एक नाटक हम निभा रहे भूमिका हों जितना बन पाए जिससे भी उतना बेहतर अभिनय हो अपनी तो है यही कामना नया साल ऐसा हो.........। खोना-पाना सब बेमतलब जीवन समतल समरस हो कर्त्ता भाव को छोड़ सकें ऐसी सम्यक दृष्टि हो अपनी तो है यही कामना नया साल ऐसा हो.........। .........मुकुल अमलास (तस्वीर गूगल से

आज मेरे स्वर्ण चंपा में फूल लगे। इस पीत आभा ने जैसे चित्त में अमृत उंडेल दिया और मानस में यह कविता उतरी .........

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स्वर्ण चंपा  स्वर्ण चंपा में फूल खिले महक रहा मेरा आँगन देख उसे मन नाच रहा थिरक रहा वन-उपवन।  बहुत दिनों से आस लगी थी  एक दिन फूल खिलेंगे  मेहनत मेरी सफल तब होगी  जब आँचल में फूल झरेंगे।  स्वर्ण बहुत हैं तिजोरी में मेरे  पर उसमें खुशबू कहाँ है  तू जीवन की अनुपम निधि है  तुम सा कोई कहाँ है! कितनी मादक खुशबू तेरी  तन-मन मेरा बौराता  लगता इत्र छिड़क दी किसी ने  अंतर्मन जिसमें डूबा जाता।  ढूँढ़े नजर उसी बंदे को  जिसने यह जादू किया है  छिपा हुआ जो कण-कण में  पर सामने जो न हुआ है।  कभी जुड़े में तुझे मैं टाँकूं  कभी देव को तुझे चढ़ाऊँ आँख बंद कर संग मैं बैठूं  इष्ट का ध्यान लगाऊँ। जब घर आए मेरे प्रियतम तुझ से ही सेज सजाऊँ तेरी खुशबू से महमह करती मैं तुझ पर बलि-बलि जाऊँ। पर दिखता तू सबसे सुंदर  डालों पर खिला हुआ ही देख स्वर्ण सी पीली आभा  दृष्टि सफल हुआ री।  मानव जीवन व्यर्थ है मेरा  तू मुझको चिड़ी बना दे  वर्षा की जब बूँद पड़े  पत्तों में मुझे छुपा ले। चोंच में ले सूखी पंखुड़ियाँ घोंसला एक बनाऊँ तेरी खुशबू से नीड़ जो महके  अपने भाग्य पे मैं इतराऊँ।   फूदकूं तेरी डाली-डाली  गीत म

कल मई दिवस है श्रमिकों का दिन । मजदूरों की स्थिति में आज भी कोई बदलाव नहीं आया है । उनकी मेहनत से बनी इमारतों को हम विरासत बना कर संभालते हैं पर उन मजदूरों की फ़िक्र नहीं करते जिन्होंने उसे बनाया । वो आज भी दो जून की रोटी के लिये मोहताज़ हैं और फुटफाथ ही उनका घर है । आज मई दिवस पर मैं उन सभी मजदूरों को सलाम करती हूँ जिन्होंने इस देश को सजाने, सवांरने, आगे बढ़ाने में अपना योगदान दिया है और यह कविता उनको समर्पित करती हूँ .......

मेहनत ही भगवान  कोई काम  छोटा नहीं होता न कोई काम महान मेहनत से तुम न हिचकना समझना न इसे अपमान करो देश की रक्षा या फिर तुम बन जाओ किसान मेहनत की कमाई रंग लायेगी पत्थर से उगेगा धान तुम अल्लाह के बंदे प्यारे तुम ईश्वर की  संतान गर्व से सीना चौड़ी कर बोलो हम मेहनतकश इंसान मेहनत में वो जादू है मित्रों जिसका नहीं  ढ़लान बंजर में भी फूल हैं खिलते रेत बन जाता नखलिस्तान मेहनत करे इंसान अगर तो जीना होता  आसान माँ - पिता के क्लेश हैं मिटते  बनता देश  महान तन से पसीना जब चूता है और बढ़ जाती है थकान रात को मिठी निंद है आती तुम सोते  चादर  तान परिश्रम तुममें बल है भरता तन पर  चढ़ाता  सान तुम पैनी छुरी बन दे जाते आत्मनिर्भरता का ज्ञान जिसने मुफ्त की रोटी तोड़ी और समझा इसमें शान पछता कर उतारना ही होगा दूसरों  का दिया परिधान करो परिश्रम खेतों में उसको बनाओ फूलों का उद्यान बंजर से रोटी पैदा कर बन जाओ मानवता का वरदान करो तरक्क़ी आगे बढ़ तुम फैलाओ उद्योग और विज्ञान कहीं किसी से कम न रहे हम सबसे आगे  हो हिन्दुस्तान घर, आँगन और  गली स्वच्छ हो मोहल्ला और मैदान चलो सब मिल

बसंत के आते ही होली की तैयारी शुरू हो जाती है अब भला जब चारों और प्रकृति पर बहार आई हुई हो और मदनोत्सव का मौका हो तो मन कैसे न बौराये ........

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बसंत आ गया  फूलों से लिया पराग गालों पे मल गया प्यार भरा एक बोल रंग चंपई कर गया । आमों में लगी बौर वन में महुआ खिल गया मन में जो कूकी कोयल बसंत आ गया । आई जो तेरी याद तन-मन  महक गया जूही सा खिला तन मन वासंती हो गया । कल ही मिली थी उनसे लगा ज़माना हो गया उसकी उल्फ़त मुझको  दीवाना कर गया । खेतों में उगी सरसों पहाड़ों पे टेसू खिल गया नेह की बंधी  डोर दिल बन पतंग उड़ गया । प्यार की है तासीर या कोई जादू कर गया    हम हैं वही लगा जैसे सब कुछ बदल गया ।                                   --- मुकुल  अमलास ( चित्र गूगल से साभार ) 

सच्ची आज़ादी अभी बाकी है

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मनाओ जश्न कि देश आज़ाद हुआ फहराओ ध्वज कि देश आज़ाद हुआ पर सोचना ज़रा क्या आज़ादी का मतलब सिर्फ़ ब्रितानिया शासन से मुक्ति भर ?????? आज़ादी का अर्थ न इतना सीमित करो ज़रा सोचो थोड़ा गौर करो..... यह तो पक्षी की अनंत परवाज़ यह तो टूटते जंजीरों की झंकार यह तो हर जीव के आत्मा की आवाज नहीं जिसके बिन किसी का निस्तार उन्नति का आगाज़ अभी बाकी है भूख और गरीबी से आज़ादी अभी बाकी है धर्म जाति की कट्टरता से मुक्त होना होगा सबको उसकी हक़ का जायज़ हिस्सा देना होगा अभी से थक गए जो हम तो कौन आवाज़ उठाएगा अभी से जश्न में डूबे अगर तुम तो कौन सवाल उठाएगा कि नहीं आजादी तीन अक्षरों के मेल से बना शब्द भर न तीन रंगों से सजा एक ध्वज भर। ........मुकुल अमलास ...... (चित्र गूगल से साभार)

कुछ लोग सदा धारा की विपरीत दिशा में ही तैरना पसंद करते हैं क्योंकि वे सदैव अपनी अंतरात्मा की सुनते हैं दुनियाँ की नहीं। जब पूरा देश राममय हो रहा मेरे मन में विचारों की कुछ ऐसी श्रृंखला बन रही.......

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मानव की मूढ़ता हे मानव तू कपट का पुतला धन्य  है  तेरी  धूर्तता हर प्राण में व्याप रहा जो उसको  भी  तू छलता। जिसका आदि अंत नहीं है जो अपरिमित जो असीम है गर्भगृह तक उसे सीमित कर मंदिर  निर्माता कहलाता ? इस ब्रह्मांड को रचने वाला सब के भाग्य को लिखने वाला उस अद्वितीय परम सत्ता को कितना  निरीह  समझता! जो अदृश्य है सदा अगोचर उसकी  प्रतिमा  बनाता राम नाम की माला जप कर अपना  लाभ  उठाता । जो स्रष्टा है अणु-अणु का जो सबका भाग्य विधाता कैसे समाएगा मंदिर में काश  समझ  तू पाता ! ------- मुकुल अमलास ----- (चित्र गूगल से साभार)

हमें सभ्य कहलाने का क्या हक़ है?

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हमें सभ्य कहलाने का क्या हक़ है ?????? जब से देखा है रक्तरंजित तुम्हें सड़कों पर मेरे रक्त जम गए हैं पूछती हूं एक ही सवाल खुद से बार-बार हमें विकसित कहलाने का क्या हक़ है? तुम भोली हो, शायद अनपढ़ भी इसीलिए माफ कर दिया होगा अपने गुनाहगारों को पर धिक्कारती है हमारी आत्मा हमें ही कि हमें नागरिक कहलाने का क्या हक है? जब-जब हम अपने प्रजातंत्र की दुदुंभी बजाएंगे तुम याद आओगी सदा पृष्ठभूमि में चित्कार के रूप में पूछते हुए हमें राष्ट्र कहलाने का क्या हक़ है? तुम समाज के मुंह पर एक तमाचा हो जो पूछती है एक ही सवाल राज्याधिशों से तुम्हें संरक्षक कहलाने का क्या हक है? तुम्हारा दर्द, तुम्हारी आंखों का पानी, तुम्हारी छाती का दूध, तुम्हारे पैरों की थकान मेरे सपने में आकर खलबली मचाते हैं पूछते ही रहते हैं जब तक मैं जग नहीं जाती तुम्हें सभ्य कहलाने का क्या हक़ है?

कॉरोना के दिनों में

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बाहर का सन्नाटा  और अंदर का एकांत  पैदा कर रहा  आतंकित कर देने वाला  विषाद और अंदेशा भय और दहशत की भी होती एक आवाज़  शोर जैसा  सांय........सांय..........सांय.......... दूर से पास आता हुआ  जैसे कोई तूफान  समेटे अपने अंदर विध्वंसक बवंडर धीरे-धीरे यह शोर  हो जाता पूरे अस्तित्व पर हावी  तन-मन कांप उठता छा जाता विषाद का घुप्प अंधेरा तभी कहीं से  पानी की एक बूंद सी तरलता  टपकती हृदय-ताल में टप ..........टप ..........टप .......... जलतरंग सा कुछ खनकता  आस की भी होती एक ध्वनि  हृदय तंतुओं को छेड़  जो जगा देती रोम-रोम में  पुलक से भरा एक भरोसा प्रकृति शाश्वत है  प्रेम शाश्वत है  जीवन भी शाश्वत है  फैलने लगता फिर चारों ओर एक मद्धम संगीत  रात की बेला का कर के पटाक्षेप जैसे हो रहा हो भोर  चहकने लगी हो चिड़िया  चटकने लगी हो कलियां  बहने लगी हो शीतल हवा हौले .........हौले......... हौले........। .......मुकुल अमलास  (कॉरोना के दिनों में

क्या वह दिन आएगा?

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क्या वह दिन आएगा? मैं............... .......नहीं हम .......नहीं सब बंद है घरों में अब जाना इस सच को जब तक बाहर से घर और घर से बाहर आने जाने की ना हो सुविधा घर भी घर नहीं रह जाता बन जाता है पिंजरा चारों ओर पसरा है सन्नाटा उदासी और बेबसी का एक अदृश्य निराशा के धुंध में खोए करते सब कल्पना आएगी वह सुबह जब एक सूक्ष्म विषाणु जो बन गया है दुनियां का सबसे बृहदाकार प्राणघातक दैत्य मर चुका होगा पा चुके होंगे हम विजय आजाद होंगे उसके चंगुल से सब उस दिन ...... सूर्य अधिक चमकीला होगा और दिन अधिक कांतिमान खुली हवा को फेफड़ों में भरने दौड़ पड़ेंगे नौजवान सड़कों पगडंडियों पर दिहाड़ी मजदूर आशा से भरे होंगे आज मिलेगी दिनभर की मजदूरी और भरपेट भोजन बच्चे खिलखिलाते कर रहे होंगे चुहलबाजी पार्कों में बुज़ुर्ग अपनी आंखों की रोशनी को बढ़ाने चल रहे होंगे हरी घास पर महसूस करते उसकी ठंडी और जीवंत स्पर्श क्या वह दिन आएगा? ....... मुकुल अमलास....... फोटो गूगल से साभार 

अहम् ब्रह्मास्मि

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हर क्षण हर पल हृदय के पास जब एक और हृदय धड़कता तो हो जाती मैं पंखों से भी हल्की कस्तूरी मृग की भांति मेरे अस्तित्व से एक स्वर्गीय खुशबू निकलती रहती डूबी रहती उसमें सराबोर शरीर में एक तितली फड़फड़ाती होता एहसास खुद का एक कमल नाभ में बदल जाने सा कभी वह अपने पांव फैलाता कभी हाथ शरीर उस तनाव को झेलता पर मन सीमाओं को तोड़ फैल जाता अनंत दिशाओं में मेरे अंदर एक सृष्टि रची जा रही मेरे शरीर का कण-कण गढ़ रहा उसे होता एहसास एक सर्जक होने का मेरे द्वारा धरती पर लाया जाएगा वह झेलूंगी मैं प्रसव पीड़ा पर मां बनने का गौरव यूं ही तो नहीं मिलता वह मेरी रचना होगी मैं रचनाकार मुझे लगता है इस सृष्टि को भी रचा होगा जरूर किसी स्त्री ने इस पुरुष प्रधान समाज ने ब्रह्मा की कल्पना कर कर लिया उसे अपने नाम यह एक आदि छल था धोखे में रखे गए हम सब आज तक घोषणा करती हूं मैं आज इस धरती पर जो भी नवीन आया लाया गया स्त्रियों के द्वारा हम ही हैं जननी इस ब्रह्मांड की। --------- मुकुल अमलास --------

नए साल के संकल्प के बारे में सोचा तो निम्न पंक्तियां मानस में उतरीं। कुछ अकल्पय तो नहीं सोच लिया मैं ने?

नए साल में  नए साल में चाहती  एक बीज बोना फैले छतनार वृक्ष  हो प्रस्फुटित प्रेम का फूल  फैले सुगंध   हो सुरभित पवन  हर ले जो सब के मन का शूल  नए साल में चाहती  रचना कुछ ऐसा  हो सुगढ़, स्थूल लेकिन  शाश्वतता जिसमें भरी हो  जो न टूटे  जो न फूटे नित्यता का संग न छूटे  नए साल में चाहती  लिखना कुछ ऐसा  नितांत जो नया हो  पर पौराणिकता से गढ़ा हो  काल जिसको छू न पाए न पावस उसको गलाए  सब के दिल पर जो लिखा हो  चिर प्रतिष्ठित जो रह जाए  नए साल में ढूंढ़ती वह  जो है शाश्वत  चिर नूतन  चिर निरंतर  जो न खोए  संग मेरे साथ जाए  सार्थक हो जन्म लेना  जीवन का अभिप्राय सध जाए।     ........मुकुल अमलास .......