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कॉरोना के दिनों में

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बाहर का सन्नाटा  और अंदर का एकांत  पैदा कर रहा  आतंकित कर देने वाला  विषाद और अंदेशा भय और दहशत की भी होती एक आवाज़  शोर जैसा  सांय........सांय..........सांय.......... दूर से पास आता हुआ  जैसे कोई तूफान  समेटे अपने अंदर विध्वंसक बवंडर धीरे-धीरे यह शोर  हो जाता पूरे अस्तित्व पर हावी  तन-मन कांप उठता छा जाता विषाद का घुप्प अंधेरा तभी कहीं से  पानी की एक बूंद सी तरलता  टपकती हृदय-ताल में टप ..........टप ..........टप .......... जलतरंग सा कुछ खनकता  आस की भी होती एक ध्वनि  हृदय तंतुओं को छेड़  जो जगा देती रोम-रोम में  पुलक से भरा एक भरोसा प्रकृति शाश्वत है  प्रेम शाश्वत है  जीवन भी शाश्वत है  फैलने लगता फिर चारों ओर एक मद्धम संगीत  रात की बेला का कर के पटाक्षेप जैसे हो रहा हो भोर  चहकने लगी हो चिड़िया  चटकने लगी हो कलियां  बहने लगी हो शीतल हवा हौले .........हौले......... हौले........। .......मुकुल अमलास  (कॉरोना के दिनों में

क्या वह दिन आएगा?

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क्या वह दिन आएगा? मैं............... .......नहीं हम .......नहीं सब बंद है घरों में अब जाना इस सच को जब तक बाहर से घर और घर से बाहर आने जाने की ना हो सुविधा घर भी घर नहीं रह जाता बन जाता है पिंजरा चारों ओर पसरा है सन्नाटा उदासी और बेबसी का एक अदृश्य निराशा के धुंध में खोए करते सब कल्पना आएगी वह सुबह जब एक सूक्ष्म विषाणु जो बन गया है दुनियां का सबसे बृहदाकार प्राणघातक दैत्य मर चुका होगा पा चुके होंगे हम विजय आजाद होंगे उसके चंगुल से सब उस दिन ...... सूर्य अधिक चमकीला होगा और दिन अधिक कांतिमान खुली हवा को फेफड़ों में भरने दौड़ पड़ेंगे नौजवान सड़कों पगडंडियों पर दिहाड़ी मजदूर आशा से भरे होंगे आज मिलेगी दिनभर की मजदूरी और भरपेट भोजन बच्चे खिलखिलाते कर रहे होंगे चुहलबाजी पार्कों में बुज़ुर्ग अपनी आंखों की रोशनी को बढ़ाने चल रहे होंगे हरी घास पर महसूस करते उसकी ठंडी और जीवंत स्पर्श क्या वह दिन आएगा? ....... मुकुल अमलास....... फोटो गूगल से साभार 

अहम् ब्रह्मास्मि

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हर क्षण हर पल हृदय के पास जब एक और हृदय धड़कता तो हो जाती मैं पंखों से भी हल्की कस्तूरी मृग की भांति मेरे अस्तित्व से एक स्वर्गीय खुशबू निकलती रहती डूबी रहती उसमें सराबोर शरीर में एक तितली फड़फड़ाती होता एहसास खुद का एक कमल नाभ में बदल जाने सा कभी वह अपने पांव फैलाता कभी हाथ शरीर उस तनाव को झेलता पर मन सीमाओं को तोड़ फैल जाता अनंत दिशाओं में मेरे अंदर एक सृष्टि रची जा रही मेरे शरीर का कण-कण गढ़ रहा उसे होता एहसास एक सर्जक होने का मेरे द्वारा धरती पर लाया जाएगा वह झेलूंगी मैं प्रसव पीड़ा पर मां बनने का गौरव यूं ही तो नहीं मिलता वह मेरी रचना होगी मैं रचनाकार मुझे लगता है इस सृष्टि को भी रचा होगा जरूर किसी स्त्री ने इस पुरुष प्रधान समाज ने ब्रह्मा की कल्पना कर कर लिया उसे अपने नाम यह एक आदि छल था धोखे में रखे गए हम सब आज तक घोषणा करती हूं मैं आज इस धरती पर जो भी नवीन आया लाया गया स्त्रियों के द्वारा हम ही हैं जननी इस ब्रह्मांड की। --------- मुकुल अमलास --------