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आज मेरे स्वर्ण चंपा में फूल लगे। इस पीत आभा ने जैसे चित्त में अमृत उंडेल दिया और मानस में यह कविता उतरी .........

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स्वर्ण चंपा  स्वर्ण चंपा में फूल खिले महक रहा मेरा आँगन देख उसे मन नाच रहा थिरक रहा वन-उपवन।  बहुत दिनों से आस लगी थी  एक दिन फूल खिलेंगे  मेहनत मेरी सफल तब होगी  जब आँचल में फूल झरेंगे।  स्वर्ण बहुत हैं तिजोरी में मेरे  पर उसमें खुशबू कहाँ है  तू जीवन की अनुपम निधि है  तुम सा कोई कहाँ है! कितनी मादक खुशबू तेरी  तन-मन मेरा बौराता  लगता इत्र छिड़क दी किसी ने  अंतर्मन जिसमें डूबा जाता।  ढूँढ़े नजर उसी बंदे को  जिसने यह जादू किया है  छिपा हुआ जो कण-कण में  पर सामने जो न हुआ है।  कभी जुड़े में तुझे मैं टाँकूं  कभी देव को तुझे चढ़ाऊँ आँख बंद कर संग मैं बैठूं  इष्ट का ध्यान लगाऊँ। जब घर आए मेरे प्रियतम तुझ से ही सेज सजाऊँ तेरी खुशबू से महमह करती मैं तुझ पर बलि-बलि जाऊँ। पर दिखता तू सबसे सुंदर  डालों पर खिला हुआ ही देख स्वर्ण सी पीली आभा  दृष्टि सफल हुआ री।  मानव जीवन व्यर्थ है मेरा  तू मुझको चिड़ी बना दे  वर्षा की जब बूँद पड़े  पत्तों में मुझे छुपा ले। चोंच में ले सूखी पंखुड़ियाँ घोंसला एक बनाऊँ तेरी खुशबू से नीड़ जो महके  अपने भाग्य पे मैं इतराऊँ।   फूदकूं तेरी डाली-डाली  गीत म