संदेश

दिसंबर, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

विचार शून्यता की अवस्था प्राप्त करना बड़ा कठिन है, ध्यान में उतरने और शून्यता को महसूसने के अनुभव को लिपिबद्ध करने की एक कोशिश का परिणाम है यह कविता ........

शून्य की खोज अंधकार कोहरा स्याही तिमिर आच्छादित है इस अंतस का आसमान और पाताल कोई ओर-छोड़ नहीं एक बेचैनी एक छटपटाहट उससे बाहर निकलने की एक कोशिश प्रयत्न , प्रयत्न और प्रयत्न शरीर का अणु-अणु इस प्रयत्न में शामिल लेकिन लगती है हाथ सिर्फ असफलता ध्यान बार-बार अपने शरीर और आसपास पर ही अटका है सर को एक झटका दे  अपने अंदर झांकने की एक और कोशिश  चारों ओर सिर्फ अंधेरा और अंधेरे की कई आभाएँ   कुछ लकीरें जो इन अंधेरों से टकराती हैं स्याही का एक गुब्बार आता है फिर दूसरा , तीसरा और गुजर जाता एक दुसरे में सब गड्ड-मड्ड फिर दिखता है हल्का प्रकाश जिसे ये अंधेरे अपने चारों ओर से दबोच एक बिंदु में बदल देते हैं फिर प्रकाश का दूसरा गोला और उसका छोटा होता जाना फिर प्रकाश के कई गोले और सबका छोटा होता जाना फिर दिखती है हल्की प्रकाश की एक अनवरत झलक और उसका तीव्रतर होता जाना प्रकाश , प्रकाश और प्रकाश जैसे एक साथ कई सूर्य उदित हुआ हो अजस्र उर्जा का बहाव डर सा लगता है कहीं कोई विस्फोट न हो जाये इस सब के बीच ध्यान आता है शरीर का व

आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता, आतंक ही उनका धर्म है | आग से ठंडक की आशा एक छलावा है कुछ लोग इस छलावा के शिकार हैं और अपने दामन को जला बैठते हैं | आज पाकिस्तान में जेहाद के नाम पर ऐसा ही कुछ हो रहा है | अब भी चेतने की जरुरत है | बहरहाल तो उन मासूमों को श्रधांजलि जो आतंकवादियों की भेंट चढ़ गये ..........

घर का चिराग गुल हो गया  है  जिनका तमाम उम्र अब रहेगा   इंतजार उनका अब न आयेंगे वे नन्हें फरिश्ते दुबारा घर में जो थे लख्ते जिगर,  नजर के नूर अपनों के क्या बिगाड़ा था अमन के दुश्मन तेरा इन बच्चों ने क्यों किया  दुनिया ए तवारीख  का वरक गंदा तुमने किसकी गवाही कौन सी तद्बीर सही ठहरायेगी तुम्हें  दहशतगर्दों ताउम्र  मांगने से भी मौत न आयेगी तुम्हें | 

हर व्यक्ति को जिंदगी में कुछ इंसान ऐसे जरूर मिलते हैं जिन्हें समझना उसके लिए कठिन होता है, ऐसे ही एक इंसान को समझने की मेरी कोशिश.......

हमसफर थोडे जुल्मी हो थोड़े बेरहम से हो , क्या कहूँ कि कैसे हो तूझे समझ न पाई अब तक कहने को तो हमसफर हो | पत्थर सा सख्त दिल तेरा , कभी तुझसे टकड़ा सर फोड़ूँ कभी फिसल ही जाऊँ ऐसे  मक्खन से नरम तुम हों | तेरे ताने छलनी कर जाते ,   तेरी बातें हैं कड़वी लगती पलभर में फिर क्यों लगता, ज्यों मिसरी की डली तुम हो | मुझसे कुछ लेना न देना , कुछ ऐसे बेपरवाह बनते हो मैं दूर अगर हूँ फिर क्यों,   बेचैन तुम हो  जाते हो | कभी बन कृपण मुझको तुम , दुनियादारी सिखलाते हो कभी किसी अजाने मानुष पर , अपना सर्वस्व लुटाते हो | बहुत सोचा बहुत विचारा , पर तह तक पहुँच न पाई किस मिट्टी से बने तुम हो ,  मानव हो या  फरिस्ता हो |      

जब हम उदास होते हैं तो प्रकृति की सुंदरता को भी नकारात्मक रुप में ग्रहण करते हैं , इसी मानसिकता को उकेरती एक कविता प्रस्तुत है........

मौसम क्या सचमुच बदलता है ? नदिया के जल पर नृत्‍य करती सूरज की किरणें वैश्या सी अपनी चाँदी के घुंघरू चमकाती अठखेलियाँ करती सब को रीझा रही है पेड़ों पर बैठी चिड़िया की चिंतातुर स्वरलहरी वातावरण को गमगीन बना रही है घान की कटाई के बाद खेतों में पड़े घान के ठूँठ  अपनी जवानी को याद कर रोते नजर आ रहे हैं  दूर -दूर तक सिर्फ  ऊसर जमीन  कड़ी घूप में झूलसते खड़े पेड़  आसमान का नीलापन जैसे कुछ कम हो गया है घूसर मिट्टी का रंग कुछ अधिक धूसर हो गया है दूर कहीं एक चरवाहा अपने मवेशियों संग निर्गुण का राग अलापता भटक रहा है मेरी नजरें भटक रहीं हैं छत की मुंडेर से बाहर ढ़ूंढ़ने के अपने अथक प्रयासों में एक भी ऐसा दृश्य जो मन को बहला दे सब कुछ इतना फीका क्यों है ? मौसम क्या सचमुच बदलता है ! या यह घटना  सिर्फ हमारे अंदर घटती है !

चाँद खिलौना

चाँद खिलौना लाकर दूँगी मैं अपने मुन्ने  राजा  को ।       कभी तुम्हारा मामा बनकर       वह कन्धे पर तुम्हें बिठायेगा       कभी तुम्हारी ऊँगली  पकड़       चाकलेट, टाफी  दिलवायेगा चाँद खिलौना लाकर दूँगी मैं  अपने  मुन्ने राजा  को ।        कभी लुढ़क कर आसमान से        वह  गेंद  तेरा  बन  जायेगा        कभी चाँदी की थाली बनकर        मीठी  सी  खीर  खिलायेगा चाँद खिलौना लाकर दूँगी मैं अपने मुन्ने राजा  को  ।        कभी चाँद की चाँदनिया        थपकी  देकर  सुलायेगी        कभी मीठी सी लोरी गाकर        मुन्ने का दिल बहलायेगी चाँद खिलौना लाकर दूँगी मैं अपने मुन्ने  राजा  को ।        लोरी सुनते - सुनते मुन्ना        जब गहरी निंद सो जायेगा         चँदा मामा सपने में आकर        परीलोक की सैर करायेगा चाँद खिलौना ला कर दूँगी मैं  अपने  मुन्ने राजा  को ।

जब भी ये शाम घिर के आती है

जब भी ये शाम घिर के आती है  जब भी ये शाम घिर के आती है कोई मेरे इर्द गिर्द  आ जाती है शाम के फीके, उदास मंजर को अपने हाथों से सहला  जाती है । समेट कर मुझको अपने पहलू में अंधेरे साये से निकाल लाती है फुसफुसाती है वह मेरे कानों में कुछ  अस्फुट सा कह जाती है । कौन है वह जो मेरे पूजा घर में आशा की लौ सी जला जाती है करूं कितनी भी कोशिश फिरभी कोई पहचान नहीं निकल पाती है । मैं अपनी इस कल्पना की देवी को मन के  मंदिर में कैद   कर लूँगा  बेदर्द जमाना भले ही कहता  रहे हाय दीवाने की कैसी बुतपरस्ती है | 

जिंदगी एक रवानी

जिंदगी चलते जाने का  नाम  है  / रुक जाना तो मौत का पैगाम है  / बहता नीर ही नदिया कहलाता  है  / ठहर गया तो वो डबरा हो जाता है  / कर कुछ ऐसा दुनिया तुमको याद करे  / राह बना अपनी खुद उस पर बढ़ता जा  / यूं तो राहें तेरी  अकेले भी कट जायेंगी  / साथ किसी का हो तो आसां हो जायेगी  / बना किसी को हमराही  तू चलता  जा  / जीवन की खूबसूरती का तू लुफ्त उठा  / छोटा सा ही सफर है इस जिंदगानी का  / किस लफड़े में पड़ा है यारा होश में आ ।