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ग़ज़ल को कुछ लोग उम्दा साहित्य नहीं मानते पर उसमें जो रूमानियत है उसका क्या कोई जबाब है ? कौन है जो जीवन में एक बार इस रूमानियत के दौर से नहीं गुजरा है ! आज इसी रूमानियत को समर्पित कुछ गजलें..........

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गज़ल याद जो तेरी आई तन मन महक गया                    दिल के बाग़ में जैसे गुलाब खिल गया ।                  मन का आसमां सज कर सिंदूरी हो गया  चाहत का रंग जबसे जीवन में बिखर गया । कह दो हवाओं को तुझे छूकर न पास आये  आफत में तुम पड़ोगे अगर मैं बहक गया । जीना मेरा अब हो गया दुश्वार तेरे बिना  जब से तुझे देखा और आँखें मिला गया । एक मेहनती आवाम था मैं कभी मगर  तेरा इश्क मुझको  निकम्मा बना गया । आओ आकर देख लो जो दिल का हाल है  आज तेरी फ़ुर्कत कैसे मुझको रुला गया ।                                                                           मुकुल कुमारी अमलास ( चित्र गूगल से साभार )       

चाहत जिंदगी को रंगीन बना देती है और अगर मन पसंद साथी मिल जाये तो जिंदगी सँवर जाती है, फिर चलता है रुठने और मनाने का सिलसिला कुछ ऐसी ही प्रेम कथा इस कविता में .........

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जिंदगी सँवर जाये रात भर नींद न आई तेरे तसव्वुर में  सुबह हुई तो सोई फिर तेरे सपने आये  छोटी सी नैया हूँ मैं किनारे की चाहत है  तेरे हाथों में हो पतवार तो साहिल मिल जाये  रात बड़ी गहरी है तनहाई का आलम है  यादों के मेले से क्यों न फिजा रोशन हो जाये  चाहा है तुझे टूट के तू ही मेरा हमदम है  ऐ रब कर कुछ ऐसा तुझको ये खबड़ हो जाये  तुझको छू के आती है जो ठंडी हवा  तू ही बता क्यों न अंग- अंग मेरा सिहर जाये  अकेले चल चल के थक गये हैं पाँव मेरे  आ मेरे क़रीब आ कि अब तो मंजिल मिल जाये जी करता है कि जी भर के तुझे प्यार करूं  सारी रंजिश तेरी हमेशा के लिये कहीं खो जाये जी में आया है कि सपनों का एक घरौंदा बने  हम तुम एक साथ रहें और जिंदगी सँवर जाये ।                                                                      मुकुल कुमारी अमलास  ( चित्र गूगल से साभार ) 

एक स्त्री अपने घर के लिये कितना कुछ देती है क्या इस बात के लिये हम उसे कोई श्रेय देते हैं ! थकी हारी हुई स्त्री अपनी प्रतिभा को कुंठित करती घर को स्वर्ग बनाने में जुटी रहती है। हर हालत में वह सृजन ही करती है लेकिन इस रचना को क्या संसार का उचित सम्मान मिल पाता है !

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स्त्री और कविता आकाश में उमड़ते घुमड़ते बादलों की भाँति मस्तिष्क में विचारों की बदलियाँ बेचैन कर रही है मुझे अभिव्यक्ति के लिये पर मेरे हाथों में कलम की जगह चाकू है बहुत तेजी से हाथ चल रहे हैं मेरे सब्जियों पर मेरी रसोई अभी अभी दाल में लगाये गये बघार से महक रही है वहीं मन में एक सुंदर सा विचार कौंधता है कहीं भूल न जाऊँ काश मैं इसे लिख पाती पर अब वो आते होंगे खाना तैयार नहीं हुआ है घर के और ढेरों काम बाकी हैं पसीने की गंध और मसाले की महक में डूबा शरीर लिये मैं घर भर में घुम रही हूँ जल्दी जल्दी काम निपटाने में लगी हूँ शायद आज थोड़ा समय मिल जाये और लिख ही डालूँ उस अधूरी कविता को जो कब से मेरी फुरसत का इंतजार कर रही है पर घर, बच्चे, पति, सास, ससुर की जरूरतों को पूरा करते करते शाम होते होते मैं थक कर लस्त-पस्त हो जाती हूँ फिर मेरी कविता वैसी ही अस्त-व्यस्त सी रह जाती है जैसी खुद मैं  लेकिन अपने को कुंठित करती अपने घर को शाम होते होते एक कविता की भांति सुंदर रूप जरूर दे देती हूँ  रचनकार तो वही रहता है  कैनवास बदल जाता है |                  मुकुल

नृत्य का भी अपना आनंद है परंतु कुछ लोगों को इसका अनुभव ही नहीं | बिना किसी नियम में खुद को बांधे शरीर को थिरकने दिजीये और फिर देखिये जीवन के इस अनुपम आयाम का आनंद ................

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नृत्यमय संसार  हम भूल गए हैं नृत्य  जो है नैसर्गिक गुण  शरीर की थिरकन का आंनद  कहीं खो गया है  बचा है वह सिर्फ वहीं  जहाँ प्रकृति बची है अब भी  अपने निर्दोष रूप में  बच्चा जब खुश होता है  उसके पांव स्वतः थिरकते हैं  आदिवासी किशोरियाँ नृत्य से करती हैं खुशी का इजहार  कोयल की कूक  फूलों से लदी डालियां  आमों की वौर  भौंरों का गुंजन   झूमते ही रहते हैं  इन्होंने तो नृत्य नहीं छोड़ा  सभ्य कहलाने वाले मानव ने लेकिन  गंभीरता का चोगा पहन रखा है   और चूक गया है उस आनन्द से  जो है उसकी  थाती  आनंद की कीमत पर  सभ्यता का टीका  बहुत बड़ी कीमत चुकाई  है  उसने अपने विकास का  क्यों नहीं बन सकते हम  निर्दोष और निष्छल  या कह लो जंगली या आदम  शरीर का पोर पोर  जब थिरकता है   हम हो जाते हैं  एक शिशु से निर्दोष  असीम आनंद में लीन और पहुँचते हैं  उसके कुछ और करीब  जो है इस समस्त संसार को  नचानेवाला ।                          मुकुल कुमारी अमलास                (चित्र गूगल से साभार)