नृत्य का भी अपना आनंद है परंतु कुछ लोगों को इसका अनुभव ही नहीं | बिना किसी नियम में खुद को बांधे शरीर को थिरकने दिजीये और फिर देखिये जीवन के इस अनुपम आयाम का आनंद ................

नृत्यमय संसार 

हम भूल गए हैं नृत्य 
जो है नैसर्गिक गुण 
शरीर की थिरकन का आंनद 
कहीं खो गया है 
बचा है वह सिर्फ वहीं 
जहाँ प्रकृति बची है अब भी 
अपने निर्दोष रूप में 
बच्चा जब खुश होता है 
उसके पांव स्वतः थिरकते हैं 
आदिवासी किशोरियाँ
नृत्य से करती हैं खुशी का इजहार 
कोयल की कूक 
फूलों से लदी डालियां 
आमों की वौर 
भौंरों का गुंजन  
झूमते ही रहते हैं 
इन्होंने तो नृत्य नहीं छोड़ा 
सभ्य कहलाने वाले मानव ने लेकिन 
गंभीरता का चोगा पहन रखा है  
और चूक गया है उस आनन्द से 
जो है उसकी  थाती 
आनंद की कीमत पर 
सभ्यता का टीका 
बहुत बड़ी कीमत चुकाई  है 
उसने अपने विकास का 
क्यों नहीं बन सकते हम 
निर्दोष और निष्छल 
या कह लो जंगली या आदम 
शरीर का पोर पोर 
जब थिरकता है  
हम हो जाते हैं 
एक शिशु से निर्दोष 
असीम आनंद में लीन
और पहुँचते हैं 
उसके कुछ और करीब 
जो है इस समस्त संसार को 
नचानेवाला । 
                        मुकुल कुमारी अमलास
          
    (चित्र गूगल से साभार) 



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