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यह कविता मैं ने पिछले साल शिक्षक दिवस पर अपने विद्यालय में सुनाई थी और सभी शिक्षक साथियों को बहुत पसंद आई थी| सबने कहा था आपने हमारे मन की बात कह दी| आज जब कौशलेन्द्र प्रपन्नजी जैसे शिक्षाविद् को कुछ ऐसे ही सवाल उठाने की वजह से जान से हाथ धोना पड़ा है तो रहा नहीं गया और यह कविता उन्हीं को सादर समर्पित करते हुए साझा कर रही हूँ .........

एक शिक्षक की व्यथा बचपन से देख रखा था मैं ने एक सपना शिक्षक बनना ही लक्ष्य बना रखा था अपना अपनी शिक्षा का कर सदुपयोग भावी कर्णधारों को शिक्षित बनाऊँगी देश में आदर्श नागरिकता की सुंदर फसल उगाऊँगी है यह एक आदर्श पेशा सबसे सुनती आई थी सोचा था मैं भी एक आदर्श शिक्षिका का फर्ज निभाऊँगी शिक्षिक बनकर उत्साह से भरा था सीना हर क्षण कुछ नया कर गुजरने का मन ने था ठाना बच्चों से घिरे रहना मन को बड़ा भाता था उन्हें पढ़ाते , लिखाते , सिखाते कहाँ कभी मन अघाता था शिक्षा कैसी हो , संग बैठ सहकर्मियों के कितना बहस करते थे हम तब वाल्मिकी , द्रोर्णाचार्य और चाणक्य से खुद को कहाँ कम समझते थे हम  लेकिन धीरे-धीरे समझ में आई बात हम तो हैं सिर्फ गढ़ने वाले गढ़न का फर्मूला तय करना नहीं है हमारा काम अब वह बने बिन पेंदी का या हो उसमें छेद हक नहीं हमें उसे भरने का शिक्षा देने वाले से नहीं पूछा जाएगा कैसी हो शिक्षा  अब तो शिक्षा का फर्मूला विदेशों से आयातीत हो कर आयेगा आपको हक नहीं जमीनी समस्या उठाने का आपको बस करना है उतना जितना कहा जाएगा हर शिक्षक ढ़ाई