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मायका होता है बेटियों के लिए स्वर्ग की देहरी पर वह अभिशप्त होती हैं वहाँ ठहरने के लिए सिर्फ सीमित समय तक। शायद इसीलिए उसका आकर्षक है। मेरी यह कविता मायके आई ऐसी ही बेटियों को समर्पित ......

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मायका आगे भागती रेल पीछे छूटते खेत खलिहान, नदी, पहाड़, रेत और भी बहुत कुछ छोड़ आई हूँ अपने गाँव की पगडंडियाँ आम का बगीचा लीची भारी डालियाँ खीर और दलपूरी की सुगंध अपनत्व भरी रिश्तों की छाँव अपना जवार अपनी बोली अमराई की मीठी खुशबू गाँव की ठंडी बयार पोखर के घाट बैलगाड़ी, टमटम और हाट कुछ खाली सा हो गया है अंदर अपना एक अंश जैसे छूट गया वहीं लेकिन सामानों के साथ कुछ और भी सिमट आया साथ आँचल में बँधा हुआ खोईंछा अनंत अहिवात का आशिर्वाद लाह की लहठी से भरी कलाई अश्रु जल से सिंचित नेह भरी नज़र यादों का एक अनंत सिलसिला मायके से लौटती बेटी हर बार कुछ और समृद्ध हो। ---- मुकुल कुमारी अमलास (फ़ोटो गूगल से साभार)

आज महिला दिवस पर महिलाओं को समर्पित है मेरी यह कविता .........

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नारी की चाह मैं सुंदर हूँ मैं कोमल हूँ मैं फूल हूँ मैं ही कली हूँ झूठी प्रशंसा मेरी मत करना मैं धरती हूँ और चाहती पग धरती पे ही धरुं बस सम्मान की चाह करूं स्त्री सदा सुंदर नहीं होती क्यों पैमाने पे खड़ी उतरुं काला कलूटा रूप हो मेरा या बेडौल स्वरूप धरुं ईश्वर की मैं अनुपम रचना हृदय में भाव भरुं बस सम्मान की चाह करूं मुझको तुम देवी न बनाना न मैं श्रद्धा की चाह करूं दया का पात्र कभी बनूं ना बस इतनी सोच धरूं इंसा हूँ इंसान रहूँ मैं उससे कम न स्वीकार करूं बस सम्मान की चाह करूं मुझको अपनी पहचान ढूँढ़नी मेहनत से आगे बढूं अपना निर्णय आप ही लूँ मैं दृढ़ संकल्प करुं कमजोर भले ही पंख हों मेरे हौसले से नभ में उरूं बस सम्मान की चाह करुं  ....मुकुल कुमारी अमलास ( चित्र गूगल से साभार )

आओ खेलें होली

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आओ खेलें होली भूल के सब रंजो-गम आओ खेलें होली रंग-अबीर उड़ाएँ छक कर खुशियों से भरें झोली आओ खेलें होली दुःख और गम तो साथ रहेंगे जब तक साँस की डोरी दे ढोलक पे थाप नच लो अब जिंदगानी बची है थोड़ी आओ खेलें होली जम कर आज धमाल मचा लो क्यों करते होड़ा-होड़ी धर्म-जाति का बंधन भूल बन जाओ हमजोली आओ खेलें होली जिनका आज अपना नहीं कोई उनकी बनाएं टोली मिलकर सब नाचें और थिरकें बाँटें खुशियां थोड़ी आओ खेलें होली न हो कोई आज अकेला सबकी बन जाए जोड़ी आज किसी पर रंग तुम डारो कर लो जोड़ा-जोड़ी आओ खेलें होली गालों पे गुलाल सजाओ आँचल न रहे कोई कोरी अपने मन की आज करें सब कोई साध रहे न अधूरी आओ खेलें होली ।

रात के भी अपने बोल होते हैं एक दिन सुनने की कोशिश की तो वो उतर आई इस कविता में....

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रात की आवाज रात की निस्तब्धता में   चलती घड़ी की सुई भी   लगती शोर मचाती  दूर से आती कुत्ते के रोने की आवाज़ मन को कितना घबराती   पुल से गुजरती रेल   रात के तिलिस्म को तोड़ती   बेधड़क दौड़ती रात की गहराई से होड़ लेती नींद नहीं आने की बोरियत   दूर करने को करवट   बदलते  सुनाई देती   बदन के हड्डी की कड़क  पेट की गुड़गुड़ाहट      उंगलियों से उंगलियाँ फोड़ते         टूटती  उंगलियों की तड़क  गूँजती रहती थोड़ी देर तक खिड़की से आती हवा परदे की सरसराहट झींगुर की आवाज सी कोई   झनझनाहट चारों दिशाओं से उठती  क्या सच    रात की खामोशी भी बातें करती है ?                     ---- मुकुल कुमारी अमलास  ( चित्र गूगल से साभार )