रात के भी अपने बोल होते हैं एक दिन सुनने की कोशिश की तो वो उतर आई इस कविता में....
रात की निस्तब्धता में
चलती घड़ी की सुई भी
लगती शोर मचाती
दूर से आती कुत्ते के रोने की आवाज़
मन को कितना घबराती
पुल से गुजरती रेल
रात के तिलिस्म को तोड़ती
बेधड़क दौड़ती
रात की गहराई से होड़ लेती
चलती घड़ी की सुई भी
लगती शोर मचाती
दूर से आती कुत्ते के रोने की आवाज़
मन को कितना घबराती
पुल से गुजरती रेल
रात के तिलिस्म को तोड़ती
बेधड़क दौड़ती
रात की गहराई से होड़ लेती
नींद नहीं आने की बोरियत
दूर करने को
करवट बदलते सुनाई देती
बदन के हड्डी की कड़क
पेट की गुड़गुड़ाहट
उंगलियों से उंगलियाँ फोड़ते
टूटती उंगलियों की तड़क
टूटती उंगलियों की तड़क
गूँजती रहती थोड़ी देर
तक
खिड़की से आती हवा
परदे की सरसराहट
झींगुर की आवाज सी कोई
झनझनाहट
झनझनाहट
चारों दिशाओं से उठती
क्या सच
रात की खामोशी भी बातें करती है
?
?
---- मुकुल कुमारी अमलास
( चित्र गूगल से साभार )
( चित्र गूगल से साभार )
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