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आज प्रेमचंद जी का जन्मदिवस है | प्रेमचंद मेरे लिये सिर्फ एक लेखक का नाम नहीं है बल्कि एक ऐसी हस्ती जिन्होंने हृदय को कहीं गहरे में छूआ है | कभी मर्माहत तो कभी आश्चर्यचकित किया है | जब भी उनको पढ़ती हूँ सोचती रह जाती हूँ कि किसी व्यक्ति को मानवीय संवेदनाओं का इतना ज्ञान कैसे हो सकता है ! आज उनको समर्पित करती हूँ अपनी यह कविता ......

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तलाश  आश्चर्यचकित हूँ कि  मैं खुद से ही कितनी अपरिचित हूँ  मेरे अंदर छिपे हैं मेरे ही कितने रूप  कल मैं ने पाया मेरे अंदर से एक बच्ची निकल आई -  वह बादलों को छूना चाहती थी  वह तितलियों को पकड़ना चाहती थी  वह इंद्रधनुष की नाव बना  पूरी दुनियां की सैर करना चाहती थी  और घर के हर कोने में उस माँ को ढूंढ़ रही थी  जो बहुत पहले उसे छोड़ कर जा चुकी है  माँ को न पा वह फूट-फूट कर रोती रही   फिर रोते-रोते ,हिचकियाँ लेते-लेते वह मर गई। आज न जाने कब मेरे अंदर से निकल आई एक किशोरी  सुंदर, सुकुमार, कल्पनाओं के पंख पर सवार  उसके सपने नितांत अधूरे थे, उसकी भावनाएं नितांत कोरी, पाकीजा  उसका शरीर सीसे सा झलक रहा था  मन गंगा जल सा पावन  जीवन से भरी थींं उसकी आँखें  उसके चेहरे से मुस्कान कभी मिटती नहीं थी  हर इंसान उसे भला लगता था  वह जीवन को पूर्णता में जीना चाहती थी  उसकी कल्पनाओं और जीवन की वास्तविकताओं में  कोई मेल न था  सुकोमल कल्पनाएं वास्तविकता की चट्टानों से टकरा कर  चूर-चूर हो गईं   और वह किशोरी गिर गई एक गहरी खाई में  एक बहुत