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स्वयं को ढ़ूँढ़ने की प्रक्रिया में कभी हाथ लगते कंकड़-पत्थर तो कभी मोती --------

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होनापन सदियों से लोगों ने दुःख का कारण ढ़ूंढ़ा मैं कांटों में खिले फूलों को सुबह की नर्म धूप में चहकते पक्षियों को हवा में डोलते वृक्षों की पत्तियों को शिशु के मासूम चेहरे और निश्छल आंखों को देख आनंद का कारण ढूंढ़ती हूं कुछ भी कारण नहीं मिलता सिवाय इसके कि वे अपने होनेपन में ही तो आनंदित हैं तो मेरा होना मेरे आनंद का कारण क्यों न हो इसमें कितना प्रसाद है भगवत्ता से भरी हुई मैं अपने इस खालीपन से भरी हुई हूं खुद में संपूर्ण इस खालीपन में किसी और के लिए कोई स्थान नहीं। ...........मुकुल अमलास..........

निस्सीम / जब हृदय अहोभाव से भरा हो तो ऐसी पंक्तियाँ उतरती हैं.......

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निस्सीम  इस निस्सीम ब्रह्मांड में जब उसने मुझे मेरी क्षुद्रता दिखाई मैं उस असीम में डूबती चली गई अनंत विस्तार था अथाह गहराई  और मुझे उड़ना नहीं आता था न तैरना खुद को उसके भरोसे छोड़ दिया तब बोध हुआ  जब अंत ही नहीं छोर ही नहीं तो गिरने के भय का कोई कारण भी  नहीं ।                                                                                                     .....मुकुल अमलास..... (फोटो गूगल से साभार)

पौत्र

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पौत्र जब भी मैं देखती तुम्हें मुझे याद आता एक साथ पीपल के मसृण पात और अपने कमजोर पड़ते गात प्रकृति का यही नियम नवीन का आगमन पुरातन का गमन तेरे नाजुक हाथों की छुअन जैसे कोई तितली फड़फड़ाई हो तेरी किलकारियाँ जैसे किसी झरने से दुध की धार निकल आई हो तेरा भोलापन जैसे दुधिया चाँदनी मेरे आँगन में उतर आई हो तेरी शरारतें जैसे कोई खरगोश  जंगल से निकल   मेरे घर में घुस आया हो खेलते-खेलते मेरी गोद में नींद से लुढ़क जाना  तेरा  जैसे सारी कायनात पर बेसुधी सी छाई हो डगमगाते हुए तेरे बढ़ते कदम लगता जैसे सारी दुनियां ही नाप ली  मैं ने तेरे मुंह से निकलते स्फुट शब्दों की लड़ी जीवन के सारे मर्म समझाते से लगे हैं मुझे अब नहीं दुःखी मैं कि जीवन का अध्याय सिमट रहा तेरे रूप में जीवन की कहानी का सुनहरा शीर्षक जो पा लिया तेरे रूप में जीवन्यास पाकर जी उठी हूँ प्रकृति शाश्वत है अब दिखता साक्षात ओ मेरे बाग के सुनहरे गुलाब । ..... मुकुल अमलास......   (फोटो गूगल से साभार)

यह कविता मैं ने पिछले साल शिक्षक दिवस पर अपने विद्यालय में सुनाई थी और सभी शिक्षक साथियों को बहुत पसंद आई थी| सबने कहा था आपने हमारे मन की बात कह दी| आज जब कौशलेन्द्र प्रपन्नजी जैसे शिक्षाविद् को कुछ ऐसे ही सवाल उठाने की वजह से जान से हाथ धोना पड़ा है तो रहा नहीं गया और यह कविता उन्हीं को सादर समर्पित करते हुए साझा कर रही हूँ .........

एक शिक्षक की व्यथा बचपन से देख रखा था मैं ने एक सपना शिक्षक बनना ही लक्ष्य बना रखा था अपना अपनी शिक्षा का कर सदुपयोग भावी कर्णधारों को शिक्षित बनाऊँगी देश में आदर्श नागरिकता की सुंदर फसल उगाऊँगी है यह एक आदर्श पेशा सबसे सुनती आई थी सोचा था मैं भी एक आदर्श शिक्षिका का फर्ज निभाऊँगी शिक्षिक बनकर उत्साह से भरा था सीना हर क्षण कुछ नया कर गुजरने का मन ने था ठाना बच्चों से घिरे रहना मन को बड़ा भाता था उन्हें पढ़ाते , लिखाते , सिखाते कहाँ कभी मन अघाता था शिक्षा कैसी हो , संग बैठ सहकर्मियों के कितना बहस करते थे हम तब वाल्मिकी , द्रोर्णाचार्य और चाणक्य से खुद को कहाँ कम समझते थे हम  लेकिन धीरे-धीरे समझ में आई बात हम तो हैं सिर्फ गढ़ने वाले गढ़न का फर्मूला तय करना नहीं है हमारा काम अब वह बने बिन पेंदी का या हो उसमें छेद हक नहीं हमें उसे भरने का शिक्षा देने वाले से नहीं पूछा जाएगा कैसी हो शिक्षा  अब तो शिक्षा का फर्मूला विदेशों से आयातीत हो कर आयेगा आपको हक नहीं जमीनी समस्या उठाने का आपको बस करना है उतना जितना कहा जाएगा हर शिक्षक ढ़ाई

यह विश्राम की वेला है

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यह विश्राम की वेला है  दिन ढ़ल चुका  सांझ घिर आई  शरीर थक चुका  अब यह विश्राम की वेला है  बंधनों में जकड़े चित्त को  अब मुक्ति चाहिए  चिर निद्रा में जाने से पहले कर लूं खुद को थोड़ा निर्भार  दिल पर कोई बोझ न रहे  खोल दूं बंधनों के तार  कर दूं सबको अपनी अपेक्षाओं से मुक्त  बहुत देखा, बहुत पाया  अब समझने का क्षण  कि है सब पुनरोक्ति  अब समय आ गया खुद में उतरने का  विश्राम में जाने से पहले कर लूं खुद को थोड़ा तैयार  पलकों को धुल जाने दूं आंसूओं से  कर लूं थोड़ा वज़ू एक सुखद, सुंदर स्वप्न के लिए  ताकि उतर  सके आंखों में प्रियतम  जिससे होगा अब मिलन  अब मिलन का क्षण आने  को है    कर लूं सफ़र की थोड़ी तैयारी  थोड़ा गुनगुना लूं  बिखर जाने दूं मधुर संगीत की स्वर लहरी चारों ओर  डोल लूं थोड़ी देर इस मस्ती में  डूब जाऊं आकंठ  उत्सव के आनंद में  जब वो पूछेगा -  मैं ने तो तुम्हें इतनी बड़ी धरती दी थी  तू नाची क्यों नहीं  तो क्या जवाब दूंगी  कैसे कह सकूंगी -  ' पांव तो थे थिरकन नहीं थी  सब तो था फिर भी '  इस &#

सावन आया

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सावन आया  प्रकृति सुंदरी ने झुल्फ बिखराया  बादल छाया  टपकी उससे  मोटी सी बूँदें  सावन आया 

आजकल कुछ बोलने की इच्छा नहीं होती शब्द जैसे चूक से गये हैं. तोआज सिर्फ मौन.....

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मौन कभी-कभी शब्द  भावनाओं को व्यक्त करने में  हो जाते असमर्थ तब बचता  एक ही सहारा  - मौन  मौन का अर्थ आँकना  आसान नहीं  नहीं होता वह  अपनी हार को छुपाने की  झेंप का सूचक  न ही करता  अपनी विजय का उदघोष  अपनी सच्चाई  और दूसरों को झूठा  साबित करने की  फ़िक्र से दूर  जब कोई ख़ुद में सिमट आता  तो उतर आता - मौन  अपनी पूरी पारदर्शिता  निश्छलता के साथ  हृदय घट में निष्कारण  सारे शब्दों पर पड़ता भारी  बिना कुछ कहे  दे देता सारे प्रश्नों के जबाब कर देता उन्हें निरुत्तर  जिन्हें है अपनी वाकक्षमता पर  अति विश्वास ।          --मुकुल अमलास (फोटो गूगल से साभार)

सभी को नववर्ष की शुभकामनाओं के साथ प्रस्तुत है मेरी यह कविता.........

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नये साल में सोने सी हो सुबह सुनहरी   चाँदी सा चमचम दिन हो  रेशम सा फैले अंधियारा  सुरमई सी हो काली रैना  चाँद सभी के अंगना उतरे निंदिया भरी हो नैना   रोज छुऐं हम नई ऊँचाई कभी न जाने गिरना  इंद्रधनुषी हो जीवन सबका साथ  हो कोई अपना   नये साल में है ये कामना  पूरा हो सबका  सपना ।                                        __ मुकुल कुमारी अमलास (फ़ोटो गूगल से साभार)