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चाबी की गुड़िया

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चाबी की गुड़िया गाल पर हाथ धरे सोचती मैं अपनी दिनचर्या क्या इसमें कुछ अपना है ? मेरी दुनियाँ सीमित है सिर्फ इन चहारदीवारियों में स्वेच्छा से कैद एक बंदी सुबह से शाम तक चकरधिन्नी की तरह दूसरों के इशारों पर नाचती ढूँढती हूँ सुकून का  एक पल जो सिर्फ मेरा हो जिसे जी सकूँ अपनी मर्ज़ी से मेरे कर्म के साथ-साथ मेरे विचारों की भी सीमा बंध गई है घर से विलग मैं कुछ और नहीं सोचती यह है असली पराधीनता जिसका एहसास तक नहीं मुझे मुक्ति की आकांक्षा खो चुकी हूँ मेरे हिस्से में है सिर्फ एक मुट्ठी आसमान जो रसोई की खिड़की से दिखता है मेरे लिए हरियाली का अर्थ है  गमले में लगा हुआ एक तुलसी का पौधा नहीं है मुझे अनुमान इस दुनियाँ के विस्तार का ब्रह्मांड की विशालता का मेरी दुनियाँ सीमित है  ससुराल से पीहर  तक मैं हूँ मर्यादा में रहने वाली भारतीय गृहिणी चाबी से चलने वाली गुड़िया जिसकी चाबी किसी और के हाथ में  शोकेस में एक निश्चित स्थान है मेरा मैं सजती हूँ सँवरती हूँ सुंदर सी दिखती हूँ दूसरों के इशारों पर चलती हूँ और चलत

कैंसर

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कैंसर   निश्चल, निःशब्द खड़ी खिड़की में  सूनी आँखों से तुम तकती हो निरंतर बाहर  तुम्हारा मौन कितना प्रखर है !  इस खिड़की से क्या दिखता है तुम्हें  इस दुनियाँ की निस्सारता ?  या ढूँढती हो औरत होने की वह पहचान  जिसे छीन लिया है इस बिमारी के दंश ने  तुम्हारे अंदर पसरा है एक सन्नाटा  क्या उसे खिड़की के बाहर की शोरगुल से  भरना चाहती हो ?  माँ मैं तुम्हारे दर्द को बाँटना चाहती हूँ  लेकिन तुम कुछ बोलती ही नहीं  न करती हो किसी से कोई शिकायत  मौन को बना लिया है तुमने अपना हथियार  बस अंदर ही अंदर सब सहती हो |  मैं चाहती हूँ खुद को आश्वस्त करना  और तुम में उम्मीद भरना  कि - अब सब ठीक है  परंतु अस्पतालों की दहलिजें  ऐसा करने से रोकती हैं जिसे करना पड़ता है तुम्हें पार  बार-बार  जिस बिच्छू ने तुम्हें डसा है  उसका दंश है बड़ा विध्वंसक  शरीर के अंग कटते जा रहे हैं  और छीजता जा रहा है  शरीर बाहर से, मन अंदर से  आँखों के आँसूओं को तो तुमने सुखा डाला है  परंतु इससे झलकता दर्द  रुलाता है मुझे, तड़पाता है मुझे  अभी सबकुछ है जीवंत  तुम, मैं,