कैंसर


कैंसर 


निश्चल, निःशब्द खड़ी खिड़की में 
सूनी आँखों से तुम तकती हो निरंतर बाहर 
तुम्हारा मौन कितना प्रखर है ! 
इस खिड़की से क्या दिखता है तुम्हें 
इस दुनियाँ की निस्सारता ? 
या ढूँढती हो औरत होने की वह पहचान 
जिसे छीन लिया है इस बिमारी के दंश ने 
तुम्हारे अंदर पसरा है एक सन्नाटा 
क्या उसे खिड़की के बाहर की शोरगुल से 
भरना चाहती हो ? 
माँ मैं तुम्हारे दर्द को बाँटना चाहती हूँ 
लेकिन तुम कुछ बोलती ही नहीं 
न करती हो किसी से कोई शिकायत 
मौन को बना लिया है तुमने अपना हथियार 
बस अंदर ही अंदर सब सहती हो | 
मैं चाहती हूँ खुद को आश्वस्त करना 
और तुम में उम्मीद भरना 
कि - अब सब ठीक है 
परंतु अस्पतालों की दहलिजें 
ऐसा करने से रोकती हैं
जिसे करना पड़ता है तुम्हें पार 
बार-बार 
जिस बिच्छू ने तुम्हें डसा है 
उसका दंश है बड़ा विध्वंसक 
शरीर के अंग कटते जा रहे हैं 
और छीजता जा रहा है 
शरीर बाहर से, मन अंदर से 
आँखों के आँसूओं को तो तुमने सुखा डाला है 
परंतु इससे झलकता दर्द 
रुलाता है मुझे, तड़पाता है मुझे 
अभी सबकुछ है जीवंत 
तुम, मैं, यह क्षण, यह दुनियाँ
पर आगे भी क्या यह सब ऐसा ही रहेगा ! 
एक सिर्फ तुम्हारे नहीं रहने से 
क्या कोई फर्क पड़ेगा ? 
तुम्हें नहीं लगता 
पर मैं जानती हूँ 
कुछ भी पहले जैसा नहीं रहेगा 
जीवन से जैसे ही तुम्हारा हाथ छूटेगा 
आसमान में एक तारा टूटेगा 
प्यार और ममत्व से भरा एक हृदय रूठेगा 
बचपना छिन जायेगा मेरा 
एक बेटी का भाग्य फूटेगा 
हृदय का एक हिस्सा हो जायेगा सूना 
और खाली होगा दुनियाँ का एक कोना |

                        --- मुकुल अमलास




( चित्र गूगल से साभार )




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