चाबी की गुड़िया
गाल पर हाथ धरे
सोचती मैं
अपनी दिनचर्या
क्या इसमें कुछ अपना है ?
मेरी दुनियाँ सीमित है
सिर्फ इन चहारदीवारियों में
स्वेच्छा से कैद एक बंदी
सुबह से शाम तक चकरधिन्नी की तरह
दूसरों के इशारों पर नाचती
ढूँढती हूँ
सुकून का
एक पल
जो सिर्फ मेरा हो
जिसे जी सकूँ अपनी मर्ज़ी से
मेरे कर्म के साथ-साथ
मेरे विचारों की भी सीमा बंध गई है
घर से विलग मैं कुछ और नहीं सोचती
यह है असली पराधीनता
जिसका एहसास तक नहीं मुझे
मुक्ति की आकांक्षा खो चुकी हूँ
मेरे हिस्से में है
सिर्फ एक मुट्ठी आसमान
जो रसोई की खिड़की से दिखता है
मेरे लिए हरियाली का अर्थ है
गमले में लगा हुआ
एक तुलसी का पौधा
नहीं है मुझे अनुमान
इस दुनियाँ के विस्तार का
ब्रह्मांड की विशालता का
मेरी दुनियाँ सीमित है
ससुराल से पीहर तक
मैं हूँ मर्यादा में रहने वाली
भारतीय गृहिणी
चाबी से चलने वाली गुड़िया
जिसकी चाबी किसी और के हाथ में
शोकेस में एक निश्चित स्थान है मेरा
मैं सजती हूँ
सँवरती हूँ
सुंदर सी दिखती हूँ
दूसरों के इशारों पर चलती हूँ
और चलती जाती हूँ l
--- मुकुल अमलास---
( चित्र गूगल से साभार )
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