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जनवरी, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सन्नाटा और शान्ति में बड़ा सूक्ष्म अंतर है उसे एक समझने की हमें भूल नहीं करनी चाहिए , अंततः सबका लक्ष्य तो शांति प्राप्त करना ही हो सकता है ........

सन्नाटा या शांति  मेरे अंदर पसरा है एक चुभता हुआ सन्नाटा इसमें उदासी है वीरानी है एक भय और अकेलेपन का एहसास जो निचोड़ता है मुझे अंदर से और मेरी जिजीविषा पर करता है प्रहार प्रयासरत हूँ इससे निजात पाने में इस सन्नाटे को बदलना है मुझे शान्ति में जब ध्यान के फूल खिलेंगे मौन का संगीत बजेगा सौंदर्य का घूप  खिलेगा आनंद की सरिता बहेगी और होगा अस्तित्व से एकात्मकता का एहसास ।

जिंदगी एक वरदान है इस भावना के साथ जिना ही जिंदगी को पूर्णता देता है | ऐसी ही एक कामना को व्यक्त करती एक कविता प्रस्तुत है ........

अभी तो मैं जिंदा हूँ  अभी तो यह ब्रह्माण्ड यह आकाशगंगा यह पृथ्वी मेरी है अभी तो यह नीला स्वच्छ आकाश यह हरी- भरी धरती मेरी है फूलों में खिलता प्रकृति का सौंदर्य यह पक्षियों का कलरव ये खिली धूप यह ठंडी हवा मेरी है अस्तित्व अपनी पूर्णता में मुझमें  जिंदा है अभी तो मैं जीवित हूँ | ये सुंदर शरीर ये इंद्रियाँ ये मस्तिष्क ये चंचल मन ये आशा निराशा से भरी भावनाएँ मेरी हैं ये अहो भाव से भरी मेरी अंतरात्मा की पुकार मेरी है अभी तो भगवत्ता अपनी दिव्यता में मुझमें प्रस्फुटित है अभी तो मैं जीवित हूँ | हे परमात्मा है तुमसे इतनी ही प्रार्थना जिंदगी जिऊँ मैं अपनी संपूर्णता में तू हो हर पल मेरे साथ समय के हर एकांश में  जीवन की उर्जा से अप्लावित हो मेरे सांसों की हर एक डोर और मेरी आत्मा हो अहोभाव से भरी अहर्निश हर क्षण हर पल ।

कल रेल बजट पेश किया गया अतः स्वाभाविक रूप से चर्चा गर्म है कि इस बजट द्वारा लोगों को क्या मिलने वाला है और क्या नहीं, परंतु भारतीय रेल का जो वास्तविक स्वरुप है वह तो वैसा ही रहेगा जैसा इस छोटी सी कविता में मैं ने दर्शाया है ...............

भारतीय रेल भारतीय रेल जीवन का एक अजीब खेल लोगों की भागमभाग और ठेलम ठेल फेरी वालों की चिल्लपों और सेल कुली और पैसेंजर की पेलमपेल पुरी, जलेबी, समोसे और भेल विभिन्‍न संस्कृतियों का सुखद मेल ।

अपराधबोध

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अपराधबोध  चिथड़ों में लिपटे  बचपन को देख  मैं हो जाती हूँ  किंकर्तव्यविमूढ़  समझ में नहीं आता  क्या करुँ  मांगने को उठे हाथ पर  कुछ पैसे थमा अपनी दया दिखला दूँ या डांट कर उसे भगा दूँ 'भीख मांगते शर्म नहीं आती आलसी कामचोर कहीं का' पर कुछ करते नहीं बनता भीख मांगना है उनकी मजबूरी या अपराध  मैं नहीं जानती पर सोचती हूँ  मेरा दिया एक सिक्का उनकी जिंदगी तो नहीं बदल सकता  न मैं व्यवस्था बदल सकती हूँ  न उनका भाग्य पर उन्हें देख हर हाल में मैं स्वंय अपराधबोध से ग्रसित हो जाती  हूँ  जैसे हो यह मेरा ही अपराध  कि मैं एक आराम का जीवन बिताती हूँ  मनपसंद खाती हूँ  जीने के लिए जरूरी हर सहूलियतों का लाभ उठाती हूँ  आखिर क्यों होता है मुझे  एक पाप का एहसास  हर बार जब मैं उनके पास से गुजरती हूँ ? ---मुकुल अमलास--- ( चित्र गूगल से साभार)