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जीवन का खेल कितना अनोखा है कभी-कभी यह मुझे अचंभित कर देता है, जब कुछ ऐसा घटता है जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी मेरी यह कविता इसी भाव दशा में लिखी गई है .....

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क्या सखी तुमने भी देखा है ? कोमल, मृदुल और सुवासित बेहद रंगीन,  बेहद सुंदर  जीवन के मधुमास काल में  बिना खिले ही किसी पुष्प को  धीरे-धीरे झरते देखा है  क्या सखी तुमने भी देखा है ? आँखों-आँखों में ही  सराहा  मन ही मन में किसी को चाहा  अन बोले उस अप्रकट प्रेम को  जीवन के चक्रव्यूह में फँस कर  धीरे-धीरे मरते देखा है  क्या सखी तुमने भी देखा है ? प्रेम विभोर किसी प्रेयसी के  मन आँगन में उगे हरसिंगार से  किसी अँधेरी आधी रात को  सफेद-केसरिया भाव सुमन  हौले-हौले झरते देखा है  क्या सखी तुमने भी देखा है ? दग्ध हृदय है व्याकुल आहें  राह तकती थकी निगाहें  प्रियतम से बिछड़ी विरहन को  सावन की रिमझिम रातों में  तिल-तिल कर जलते देखा है  क्या सखी तुमने भी देखा है ? सुख समृद्धि के चरम पे पहुँचे रीतेपन का एहसास लिए  रिश्तों की भीड़ में तन्हा  किसी बावले भावुक इंसा को  बिलख-बिलख रोते देखा है  क्या सखी तुमने भी देखा है ? जीवन की आपाधापी से जर्जर,  थके, शिथिल हो चुके अंग में  किसी भूले मित्र की पाती पाकर  संवेगों के प

सूर्य का ताप अपने चरम पर है, सब की एक ही इच्छा है - बरसो रे बदरा झमझम कर, ऐसे में धरती की पुकार को मैं ने अपनी इस कविता के माध्यम से स्वर देने की कोशिश की है .......

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मैं धरा तुम अंबर के मेघ  तुम हो  मेरे स्वप्न देव  मैं धरा तुम अंबर के मेघ  तेरे जल कण को तरसती  उड़ती धूल संग पवन वेग । मैं अकिंचन शुष्क रेत  है अतृप्ति प्रचंड शेष  मेरी हरीतिमा के सुख-स्रोत मैं प्यास तुम सुधा अशेष । तुम से जो रसधार बरसे  मैं मुदित जी भर नहाउँ  तुम बनो बैकुंठ मेरे  चख सुधा अमरत्व पाऊँ । फूटे  अंकुर चीर सीना  जीवन की पहचान बनकर  मैं ओढूँ धानी चुनरिया   तुम उड़ो निर्भार होकर । तुम से ही जीवन धरा पर  तुम से ही है आत्मा  तुम झमाझम मुझ पे बरसो  तृप्त हो जीवात्मा ।                                                  -  मुकुल अमलास                             (चित्र गूगल से साभार )