सूर्य का ताप अपने चरम पर है, सब की एक ही इच्छा है - बरसो रे बदरा झमझम कर, ऐसे में धरती की पुकार को मैं ने अपनी इस कविता के माध्यम से स्वर देने की कोशिश की है .......




मैं धरा तुम अंबर के मेघ 


तुम हो  मेरे स्वप्न देव 
मैं धरा तुम अंबर के मेघ 
तेरे जल कण को तरसती 
उड़ती धूल संग पवन वेग ।


मैं अकिंचन शुष्क रेत 
है अतृप्ति प्रचंड शेष 
मेरी हरीतिमा के सुख-स्रोत
मैं प्यास तुम सुधा अशेष ।


तुम से जो रसधार बरसे 
मैं मुदित जी भर नहाउँ 
तुम बनो बैकुंठ मेरे 
चख सुधा अमरत्व पाऊँ ।


फूटे  अंकुर चीर सीना 
जीवन की पहचान बनकर 
मैं ओढूँ धानी चुनरिया  
तुम उड़ो निर्भार होकर ।


तुम से ही जीवन धरा पर 
तुम से ही है आत्मा 
तुम झमाझम मुझ पे बरसो 
तृप्त हो जीवात्मा ।

             

                                   -  मुकुल अमलास 

                         



 (चित्र गूगल से साभार )




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