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अगर मैं कहूँ की पेड़‌-पौधे मुझसे संवाद करते हैं और उनसे मेरी दोस्ती है तो शायद आप हँसें, पर मेरी इस कविता को पढ़ने के बाद शायद आपको मेरी बातों पर भरोसा हो जाये ......

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  मुझसे संवाद करो ओ निसर्ग के उपहारों मुझसे संवाद करो यह माना हम तुम अलग बहुत मैं मानव तुम वनस्पति जगत पर यह रिस्ता बड़ा अनोखा  मैं सखी तुम्हारे बचपन की तुम मेरे मानस के परम सखा ओ जूही की कलियों मुझसे संवाद करो | लगता क्यों मुझको ऐसा है  हम तुम में सब संप्रेषणीय है न स्वर कंठ की आवश्यकता न अक्षर भाषा की बाधकता ओ मधुमालती की लताओं मुझसे संवाद करो | कोई सूक्ष्म तरंग सी आती है जो मुझे विह्वल कर जाती है तेरी खुशबू में एक वक्तव्य छिपा अतींद्रिय तिलिस्म का जाल बिछा ओ हरसिंगार के फूलों मुझसे संवाद करो | तेरी खामोशी कुछ  कहती  रहती   जहाँ मेरी इन्द्रिय नहीं पहुँच सकती बहुत बारीक हैं कुछ परदे  पड़े  जिनके आर पार हमदोनों  खड़े ओ चंपा की डालियों मुझसे संवाद करो | हवा में तेरे पत्ते जब डोलते हैं लगता कुछ भेद सा खोलते  हैं कभी अस्पष्ट , धुंधला सा  पाया कभी लगता सबकुछ समझ लिया ओ रातरानी की झाड़ियों मुझसे संवाद करो | डालों पर जब कलियाँ लगती   हो शुभ्र , ताम्र

कार्यालय

कार्यालय उतरा हुआ चेहरा थका हुआ शरीर चारों ओर पसीने की महक लोंगों की लम्बी कतार अंगूठे लगाते हाथ मोटी मोटी फाइलें गुटका खाते हुए चपरासी कर्मचारियों का उबा हुआ चेहरा अधिकारियों के चेहरे पर निर्जीव सी निर्लिप्तता कैसी जिंदगी है यह यहाँ जिंदगी दौड़ती नहीं रेंगती है जहाँ जीवन छोटा होता जाता है पहचाना इस जगह को जी हाँ यह राज्य सरकार का कोई भी कार्यालय हो सकता है जहाँ पेशाब करने की सुविधा उपलब्ध तो हो पब्लिक के लिए पर उसमें जाने की हिम्मत आप न जुटा पाएँ और अगर कोई शौचालय बेहतर स्थिति में दिख भी जाए तो उसमें ताला लगा हो जी हाँ ऐसे ही कार्यालयों से हमें उम्मीद करनी है कि जनता के लिए वे शौचालय बनवायेंगे और एक स्वच्छ भारत का निर्माण होगा । ----मुकुल अमलास ----  (चित्र गूगल से साभार)