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शब्दातीत

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  शब्दातीत कुछ लिखते या कहते  निरंतर उत्सृष्ट होते मेरे शब्द  शब्दों की एक दुनियां  हर शब्द से निकलते अर्थ  शब्दों में ढूँढी जाती हूँ मैं  मतलब निकालते लोग  एक अपराधबोध के भंवर में  डुबती-उतराती मैं  अचंभित होती हूँ  क्या सच मैं वही हूँ  जो ये शब्द कहते हैं  या इससे इतर भी कुछ  जो मेरी आँखें कहती हैं  मेरी शब्दातीत भावनाएं  जिन्हें मैं अभिव्यक्त नहीं कर पाती  मेरी उँगलियों के पोरों की छुअन  मेरे मुस्कान की तासीर या आँखों से ढुलके हुए आँसू  मेरे ही तो हिस्से हैं  मेरे प्राणों का एक अंश   उनका महत्व क्यों नहीं  डर लगने लगा है  शब्दों की इस दुनियां से  जुड़ना चाहती   सिर्फ भावों, संवेदनाओं के तंतुओं से  होना चाहती  बोधगम्य बिना शव्दों के  जीना चाहती  उस दुनियां में जाकर  जहाँ जीया जाता है  बिना भाषा और स्वर के  अपने सत्य स्वरूप के साथ  तरुओं की भांति  मौन परंतु कण-कण से स्पंदित, मुखरित ।              ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,मुकुल कुमारी अमलास ( चित्र गूगल से साभार )

हर लड़की में एक बावलापन छुपा होता है आज अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस पर यह कविता उसी बावलेपन के नाम-----

हर लड़की  हर  लड़की  थोड़ी सी पागल होती है  बौराई सी ढूँढती है  बादल और पानी सा सामीप्य  धरती आसमान सी दूरी  फूल और भौंरों सा संबंध चाहती है  गौरैया की भाँति  एक घोंसला बना कर  पेड़ों पर टंगी रहना   मानव के बनाये नियमों  के कारागार से मुक्ति  घर की चहारदीवारी में एक झरोखा खोलना  उससे आती ठंडी हवाओं में  जी भर सांस लेना  चारों दिशाओं में तोरण सजा कर  घर को स्वर्ग बनाना  समस्त रिश्तों को समेट  उन्हें अपना बना लेना  संपूर्ण ब्रह्मांड को आलिंगन में समो  उसकी समरसता में डूबना  उसकी अभीप्सा  एक पागलपन   भला उसका क्या महत्त्व ?      -----  मुकुल कुमारी अमलास

क्षणभंगुरता जीवन का सत्य है..........

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क्षणभंगुरता वर्षा के बाद खिड़की के ग्रिल में  पंक्तिबद्ध बूँदों की कतारें  लुभाता है मुझे  क्षणभर को उसमें  सारा आसमान दिख जाता है  इस लघुता की महत्ता  विस्मित करती है  झाँकती हूँ उसमें अपना चेहरा  पलभर को विहँसती हूँ  तभी टपक धूल में मिलना उसका  कर जाता है घायल   मुदित मन छटपटा उठता है  सौंदर्य की क्षणभंगुरता  विचलित करती है मुझे  पर सत्य से साक्षात्कार  भी तो  करवाती हैं  ऐसी ही घटनाएं ।

आज छुट्टी के दिन बिल्कुल खाली बैठी हूँ तो इस खालीपन के ही नाम कुछ लिखा है,पेश है..........

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 रिक्तता आँख बंद करते ही वास्तविक दुनियां विलीन हो जाती है पर सामने होते हैं अनेक रंगों की आभायें कभी लाल , कभी पीली,  कभी नीली उस अंधेरी दुनियाँ को ग़ौर से देखती हूँ  पाती हूँ धब्बों और रेखाओं का एक अनंत सिलसिला हिलता एक दूसरे में मिलता निरंतर गतिमान रंग और धब्बे मिल कर एक खेल सा खेलते हैं जैसे हो वह कोई मॉडर्न पेंटिंग का नमूना गतिेशीलता सिर्फ बाहर नहीं अंदर भी है आँखों के अंदर , विचारों के अंदर कहाँ कभी हम होते खाली उठता ही रहता विचारों का बबंडर धाराशायी होते ही रहते सपनों के महल आँख मूंद लेने से कुछ न होगा क्या पात्र को सिर्फ उल्टा कर देने से  वह खाली हो जाता है कुछ न कुछ भरा ही रहता है भले दिखाई न दे  चाहे वह हो सिर्फ विचार रूपी हवा ही   बहुत खेल लिया यह खेल चलो अब शुरु करते हैं  अपने को खाली करने का  एक नया खेल सारे कचरों को बाहर फेंक अंदर से हो जायें बिल्कुल स्वच्छ निर्द्वंद,  रिक्त शून्य की भाँति चलो ढूँढते हैं उस क्षण , उस पल , उस अवस्था को जब एक चुप्पी में लिपटे हों हम पर न हो कोई उदासी और ग़म ख

किसी अपने को खोना अपूरणीय क्षति है, दुःखद है, पर दुनियां में अगर कोई सत्य है तो वह है मृत्यु जिसे झुठलाया नहीं जा सकता और मानव उसके सामने लाचार है,ऐसी ही लाचार मनःस्थिति में निकले हैं ये शब्द----

श्रद्धांजलि दशों दिशाएं चुप्प हैं घुप्प काले बादल घिरे आ रहे मृत्यु शोक का सन्नाटा फैला है चारों ओर कोई शरीर का चोगा छोड़ गया मैं भागी आ रही उस प्रिय आत्मन को देखने पर मरने के बाद मिट्टी को मिट्टी में मिलाने की क्यों रहती इतनी जल्दी आख़िर इस शरीर की मृत्यु से बढ़ कर अंतिम गति और क्या होगी समझाना चाहती हूँ खुद को मृत्यु छीन लेती है हमसे अपने सगे को सदा के लिये एक अंतिम बार उसे देख लेने से यह दुःख कम तो नहीं हो जाता फिरभी अंतिम दर्शन नहीं कर पाई इस बात से कलेजा मुँह को क्यों आ रहा मेरा आँखों के सामने धुंध सा छाया है और आँखों से बह रही जलधारा सावन की हरियाली वीरानी में बदल गई है एक और भी है जो है चुप पर उसकी सूनी कलाई देख मुझमें क्यों रुदन का बेग फूट रहा सबलोग तो सामान्य हो चुके उसे विदा कर बल्कि कुछ के लिए तो यह मौका है उत्सव का अब सब आयेंगे पंडित और लोगों की भीड़ में होंगी कर्मकांड की नौटंकियाँ मेरा ही मन क्यों भागता है इस सब से जिंदा रहते जो दे न सके दो मीठे बोल इस सबसे क्या दे सकेंगे मृत आत्मा को सदगति होता है दर्द देख कर बिडंबना जिन लोगों ने

मानसून की पहली बरखा के साथ सारा परिदृश्य बदल गया, गर्मी से राहत मिली, मन को सुकून | ऐसे मौके पर पेश है एक छोटी सी रचना मौसम की पहली बरखा................

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                                 मौसम की पहली बरखा इस मौसम की पहली बरखा यहाँ  हुई अभी-अभी सोंधी-सोंधी खुशबू आती है  मिट्टी से  भली-भली। सबकुछ धुल कर साफ हो गए छत  आँगन गली-गली ठंढी हवा का असर  मस्त है लगती  तबीयत भरी-भरी। कितनी  बेरंगी और झुलसी थी  जिंदगी मरी-मरी बिजली चमकी   मेघ उड़े तो लय  में आ गई खड़ी-खड़ी। माल-मवेशी  बूढ़े और बच्चे  छोटी  सी गुइयाँ ता-ता थई-थई घर के बाहर निकल पड़े सब ताजी  हवा में खुली-खुली। वर्षा की बूँदें टप-टप बरसे पास में  चाय की प्याली भरी-भरी साथ दोस्तों की दिलकश बातें गर्म  कबाब हो तली-तली।        -----मुकुल अमलास ( चित्र गूगल से साभार)                        

आज अपने पिता को याद करने का दिन है, मुझे भी अपने पिता बहुत याद आए और दिल से निकले ये उदगार.......

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बाबुजी  मेरे मन के आँगन में स्थापित  एक तुलसी का चौड़ा  अमृत संचित एक भव्य कलश एक ऐसी मूर्ति जिसपर कभी धूल नहीं जमी एक ऐसा व्यक्तित्व जो रहा  सदा मेरा संबल  ज्ञान की पराकाष्ठा  उदात्त व्यक्तित्व  निर्मल चरित्र  इस पूरे ब्रह्मांड में एकमात्र व्यक्ति  जिसपर मैं आँख मूँद कर भरोसा कर सकती अपने पर भी इतना विश्वास नहीं रहा कभी  शायद मैं अपने बारे में गलत निर्णय ले भी सकती  पर वो - कभी मेरे लिए कुछ गलत नहीं होने देंगे  ऐसा अडिग विश्वास रही मेरी थाती  मानती हूँ ख़ुशनसीब खुद को  कितने होते हैं इतने सौभाग्यशाली  जिन्हें पता है कहीं भी बैठा हो  धरती पर है कोई अबलंब उसका कोई रक्षक जो संकट आने पर  उसका बाल नहीं बांका होने देगा निरंतर प्रवाहित आशिर्वाद की सरिता  एक अमल, धवल, अडिग हिमालय  मेरे जीवन की सबसे बड़ी पूँजी  मेरे बाबूजी ।               --मुकुल कुमारी अमलास ( फोटो गूगल से साभार) 

गर्मी की छुट्टी यानि अपनों से मिलने का समय | बच्चे अपने गाँव हो आते हैं दादा-दादी, नाना-नानी से मिल आते हैं, तो आज की कविता उनके लिए..............

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                                           नानी के घर आया हूँ  काली कोयल कहाँ से आई  क्यों  इतना चिल्लाती हो  कुहु-कुहु का राग सुना कर  क्यों मुझको अभी जगाती हो जेठ की ताप से बेकल होकर  क्या तुम यूँ शोर मचाती हो  या अमराई के पके आम की  खुशबू से बौराई हो गर्मी की छुट्टी है मेरी  मैं नानी घर आया हूँ  प्यारी सी कथा को सुनकर लंबी तान कर सोया हूँ जैसे ही स्कूल खुलेगा  बड़े सबेरे मेरी माँ मुझे जगायेगी  नहा-धुला तैयार करा कर बस में मुझे चढ़ाएगी नानी की कथा है सुंदर  सपनों में भरमाया हूँ  देवलोक की सैर मैं करके  अभी परीलोक में आया हूँl  नाना सुबह की सैर में जाते  नानी मंदिर हो आती है  लड्डू- पेड़े का भोग लगा कर  फिर वो मुझे खिलाती है थोड़ा और ठहर जा कोयल  मैं खुद ही उठ जाऊँगा खा-पी करके मामू संग मैं  अमराई में आऊँगा अमुआ की डाली पर फिर वह  सुंदर झूला एक डालेगा लंबी-लंबी पेंग उड़ेगी कुहु-कुहु मैं भी तेरे संग गाऊँगा ।           ------- मुकुल कुमारी अमलास ( चित्र गूगल से साभार)

गेह

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गेह इस निखिल विश्व के सर्वांग से  एक शून्य को चुरा कर  भर दिया है मैं ने  अपने इच्छित लालसा के रंग से  चारों ओर से भीत खड़ी कर  बसा लिया है उसमें अपना गेह  यह चौकोर और गोलाकार स्थान  अब सिर्फ एक ज्यामितिक आकार नहीं  किसी का खिलखिलाता घर संसार है  एक-एक ईंट को जुड़ते देख  एहसास होता है  मैं कोई चिड़ी हूँ  जो तिनका-तिनका जोड़कर  अपना घोंसला बना रही है  कुछ दिनों में इसमें बच्चे चहचहा रहे होंगे  दीवारों पर पानी डालते  उसके छींटों में भींगती हूँ  अनुभूति ले जाती है मुझे  निर्जन पहाड़ के झरने के पास  दूर-दूर तक उड़ते उसके फेनिल छींटे  और उसमें भींगती मैं  कितना एकांतिक सुख  एकेंद्रिय बन गई हूँ मैं  मेरे रोम-रोम में  जैसे सवेरा खिल रहा है  अपने सपने को साकार होते देख  आंनद की बौछार में भींग रही हूँ  आदिम अभिलाषा है यह  मैं भी इससे परे कैसे हो सकती  एक गेह  एक नेह  बस इतनी सी तलाश  और उसमें भटकता सारा जीवन  पर मेरा प्रेमपूर्ण चिड़ा कहाँ है  उसके प्रेमपूर्ण होने तक  तो सबकुछ  अधूरा ही रहेगा ।            

गंध कई तरह के होते हैं कुछ हमें उन्मत बना देती हैं तो कुछ बेकल पर हर हालत में हमारी अंतर्यात्रा में हमारी सहायक होती है ......

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गंध  ताप से बेकल आँगन में  पानी छिड़क कर बुहारती वह  डूबी जाती है  मिट्टी से उठती सोंधी महक में  भूल जाना चाहती है शहर का अकेलापन  समेट लेना चाहती है  देहात के अपनेपन की गंध को अपने मन में  गाँव की सीमांत से गुजरते हुए  आम की गाछी से आती खुशबू में भिंगी  आश्चर्य में पड़ी है वह  कहाँ से आती है यह महक  किस पेड़, किस फूल, किस पत्ते से  कहीं और क्यों नहीं है  गाँव की यह गंध  जब से वह प्रेम में पड़ी है  उसके तन-मन से उठती है  प्रेम की सुवास  एक मादक गंध  जो उसके आसपास को महकाता है  प्रेमपाश में आबद्ध प्रेमी-युगल के शरीर से  उठती है एक स्वर्गीय सुगंध  जो चहूँ दिशाओं को पवित्र बना देती है  इस प्रेमपाश में बंधी वह सोचती है  क्या यही है वह प्रेम की गंध  जिस पर ब्रह्मांड टिका है  बजती घंटियों  उठती धूप की सुगंध से व्याप्त मंदिर  के एक कोने में बैठी वह  सारे चहल-पहल से हो गई है दूर  बंद आँखों से बहते हैं आँसू पर शरीर कहीं खो गया है  धूप और अगरू की सुगंध से  आविष्ट है उसका मन-मस्तिष्क  महसूस होता है   ईश्वर के अस्तित्व की गंध  अपने क

आज महिला दिवस के अवसर पर समस्त नारी जाति को समर्पित है मेरी यह कविता ........

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नारी  नदिया के दो पाट सरीखा  हे नारी  तेरा जीवन है  इस पार तेरे बाबुल का घर  उस पार खड़ा तेरा प्रियतम है तेरे बिन सूना पिया का आँगन  तुम बिन खाली पीहर है  दो-दो कुल का बोझ तू ढ़ोती  तू इस धरती की हिम्मत है प्रेम, दया, करुणा और ममता तुम से ही भाव ये जिन्दा है  जो तू न  हो इस धरती पर   कितना कटु औ नीरस जीवन है माँ बन कर तू जीवन देती  तुझसे ही सृष्टि चलती है  तेरी कृपा का मोल नहीं है  तू ही प्रकृति की नियति है सुंदर है तू फूल की भाँति  मख़मल सी तू कोमल है  जेठ की तपती धूप ये दुनियां तू नीम की छाया शीतल है घर को तू ही स्वर्ग बनाती  तुझसे ही जीवन का सुख है  तेरे ऋण को चुका सके कोई  किसमें इतनी  शक्ति  है तेरे हृदय में प्रेम की सरिता  धैर्य तेरा फौलादी है  शक्तिरूपिणी, आशीर्वचनी  तू सीता तू ही भवानी है । बड़े मूढ़ हैं ये दुनियांवाले जो तेरी कीमत कम आंकते हैं  प्रकृति की अदभूत रचना का  सही अर्थ नहीं पहचानते हैं उस घर में सौभाग्य बरसता  जिस घर में तेरी  इज्ज़त है  है धरती रहने के क़

प्रकृति की हर घटना अनुपम है चाहे वह वसंत का आगमन हो या पतझड़ का दौर | आज पतझड़ के बहाने ही सही प्रस्तुत कर रही हूँ अपने कुछ मनोभाव -----

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पतझड़ का सौंदर्य सागौन के जंगल से गुजरते हुए देखा मैंने पतझड़ का सौंदर्य माघ माह की सर्द दोपहरी तेज ठंडी हवा का आता-जाता झोंका सूखे पत्तों की होती बरसात अपलक निहारती ही रही निसर्ग के इस विनाश-पर्व को मुझ पर गिरते रहे पीले , सूखे पत्ते सिहराते रहे मुझे अपनी छुअन से होती रही मैं रोमांचित उस चरचर , मरमर से जिस पर पड़ रहे थे मेरे पाँव उस वीरानी से जो बिखरा पड़ा था सूखे पत्तों के साथ चारों ओर मैं ढूँढ़ती रही जीवन-सौंदर्य सूखेपन की सोंधी सी खुशबू में हर पेड़ पर टंगे हैं अब बस कुछ ही पत्ते ज्यूँ टंगे होते हैं बच्चों के पतंग बिजली के खम्भों और झाड़ियों पर नंगे होते जा रहे सागौन के पेड़ गंजे सिर,ठूंठ से खड़े  दे रहे तर्पण अपने ही शरीर के एक -एक अंग को पर ढूँढ़े नहीं ढ़ूँढ़ पाती कहीं उदासी का आलम इस बेरंग , धूसर , जीर्णशीर्ण होते जंगल में भी आ रही कहीं से  फगुनाहट की गंध और आहट नवजीवन और नवबसंत का संदेश लिए |                  --- मुकुल कुमारी अमलास       (चित्र गूगल से साभार) 

'निःशब्दता के स्वर' की समीक्षा

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हाल ही में मेरी पुस्तक 'निःशब्दता के स्वर' सिद्धार्थ बुक्स, दिल्ली से प्रकाशित हुई और उसका लोकार्पण हुआ । आज लोकमत समाचार के परिशिष्ट 'लोकरंग' में लब्धकीर्ति साहित्यकार श्री हेमधर शर्मा जी की समीक्षा आई है, अपने ब्लॉग के पाठकों के लिए उसे प्रस्तुत कर रही हूँ----