गेह


गेह




इस निखिल विश्व के सर्वांग से 
एक शून्य को चुरा कर 
भर दिया है मैं ने 
अपने इच्छित लालसा के रंग से 
चारों ओर से भीत खड़ी कर 
बसा लिया है उसमें
अपना गेह 
यह चौकोर और गोलाकार स्थान 
अब सिर्फ एक ज्यामितिक आकार नहीं 
किसी का खिलखिलाता घर संसार है 
एक-एक ईंट को जुड़ते देख 
एहसास होता है 
मैं कोई चिड़ी हूँ 
जो तिनका-तिनका जोड़कर 
अपना घोंसला बना रही है 
कुछ दिनों में इसमें बच्चे चहचहा रहे होंगे 
दीवारों पर पानी डालते 
उसके छींटों में भींगती हूँ 
अनुभूति ले जाती है मुझे 
निर्जन पहाड़ के झरने के पास 
दूर-दूर तक उड़ते उसके फेनिल छींटे 
और उसमें भींगती मैं 
कितना एकांतिक सुख 
एकेंद्रिय बन गई हूँ मैं 
मेरे रोम-रोम में 
जैसे सवेरा खिल रहा है 
अपने सपने को साकार होते देख 
आंनद की बौछार में भींग रही हूँ 
आदिम अभिलाषा है यह 
मैं भी इससे परे कैसे हो सकती 
एक गेह 
एक नेह 
बस इतनी सी तलाश 
और उसमें भटकता सारा जीवन 
पर मेरा प्रेमपूर्ण चिड़ा कहाँ है 
उसके प्रेमपूर्ण होने तक 
तो सबकुछ 
अधूरा ही रहेगा ।

     
           -मुकुल कुमारी अमलास 

( चित्र गूगल से साभार )

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