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उऋण

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उऋण अब  जीवन लगता पूर्ण  पाती उसमें जिंदा  खुद को वही रंग वही रूप  वही संवेदना वही करुणा  वही रिश्तों की परवाह  वही जिंदगी की समझ  वही सुरुचि वही अभिरुचि  मैं रहूँ न रहूँ  धरती पर  कहाँ है कोई कमी जीवन का सातत्व   अब दिखता स्पष्ट बेटी बड़ी हो गई  संभाला उसने घर आँगन  फिर बना एक आशियाना  घरौंदे में गूँजा जीवन संगीत  संभाल लेगी सब व्यवधान  सजा देगी सारे अरमान  विश्वास थीर हो रहा  मुक्त हूँ अब  जीवन मोह से चुक गया स्त्री होने का कर्ज़  बेटी माँ को कर देती   उऋण  लोक-परलोक के सारे ऋणों से।              ..............मुकुल अमलास  (चित्र गूगल से साभार) 

#हिंदी दिवस के अवसर पर लिखी गई कविता "माँ का श्रृंगार हिंंदी" ...................

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         माँ का श्रृंगार हिंदी     कैसी अज़ब कहानी इसकी कैसा गजब फ़साना अपने ही देश में रह गई हिंदी बन कर बेगाना।   समझा   जाता सदा उसे   तो अपढ़ों की भाषा सर पर रख सब हैं नाचते सदा विदेशी भाषा।   अंग्रेजी  की  दुम पकड़ सब आगे बढ़ते  जाते हिंदी बोलने  वाले  सदा अपनी  लाज  बचाते।   अपनी भाषा का अवमूल्यन हृदय में घाव करेगा मेधा के होते   भी जब   कोई आगे नहीं   बढ़ेगा।   काश कि जिस में सोचा करते उसमें  ही लिखते-पढ़ते सहज-सरल अभिव्यक्ति का इसे सशक्त माध्यम पाते।   निज भाषा बिन कोई  देश क्या कभी आगे  बढ़ा है दूसरों   की   संपति से   कोई कहां धनवान  बना है!   कमी नहीं कुछ इस भाषा में चाहे हो कोई भी पैमाना बोली-लिखी जाती एक सी शब्दावली से भरा खजाना।   बनी रही  यह आस  अधूरी हिंदी को  सब अपनाते राष्ट्रभाषा का  देकर दर्जा  भाल पर अपनी सजाते। कब तक  रहेगा भारत माँ  का यूँ ही श्रृंगार अधूरा लगा  माथे पर हिंदी की  बिंदी  करें उसे अब पूरा।                   .............मुकुल अमलास..........                         (चित्र गूगल से साभार)