संदेश

जुलाई, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मेरा सावन सूख गया है, निश्चय ही सावन की रसधार उनके लिये है जिनका मन मीत उनके साथ है, एक विरहिणी के लिये तो सावन भी सूखा ही होता है .............

चित्र
मेरा सावन सूख गया है जब से प्रिय तुम दूर हुये मुझ विरहण को छोड़ गये  मन की धरती जलती है  अब बस आँख बरसती है  जीवन का रस सूख गया है  मेरा सावन रूठ गया है । किसके संग मनुहार करूं मैं  किसके लिये श्रृंगार करूँ मैं  रात अंधेरी अमावस की आई  चारों ओर घनी अमा है छाई चांदनिया बादल ओट छुपा है  चाँद मेरा मुझसे रूठ गया है । जीवन में रस राग नहीं है  बस निशा है उषा नहीं है  जिस तटनी के एक ही तट हो  जिस सागर का कोई न तल हो  मेरी वेदना का ठौर नहीं है  प्रियतम मेरा रूठ गया है । जिस फूल पर भ्रमर न डोले  जिस मंदिर में हों नहीं भोले  जिस अमा की भोर नहीं हो  जिस जंगल में मोर नहीं हो  जीवन से रंग छूट गया है  मेरा मधुबन ठूँठ हुआ  है ।

कुछ अनुभव बड़े ही पवित्र और ख़ास होते हैं जिन्हें शब्दों में उतारना तो लगभग नामुमकिन ही होता है फिरभी धृष्टता कर रही हूँ ..........

चित्र
ब्रह्मांडीय रति  हम और तुम जब मिलते हैं और होते हैं एक  यह सिर्फ दो शरीरों का मिलना नहीं होता  मेरे पोर पोर में रस बरसता है  और तुम्हारे नस नस में बिजली कौंधती है  जब हम आलिंगनबद्ध होते हैं जब तुम मुझमें समाये होते हो  हम होते हैं एकाकार   और यह एहसास दिलाता है मुझे  जैसे मिलन है यह शिव और शक्ति का  मेरे चारों ओर सूर्य, चंद्र, ग्रह,नक्षत्र बिखड़े पड़े हैं  हम तुम किसी आकाश गंगा में लय हैं  संपूर्ण ब्रह्मांड का आनंद हमारे चारों ओर सागर सा हिलोरें ले रहा होता है  संसार का सबसे सुंदरतम क्षण है यह  शरीर का अणु अणु होता है रोमांचित  सम्पूर्ण सृष्टि है कंपायमान चारों और है असीम प्रकाश का विस्तार  हम नहीं चढ़ रहे होते कोई उत्तुंग चढ़ाई परमानंद के ज्वार में हम बहे रहे होते हैं किसी घाटी में  क्षण थिर हो जाता है  विचार रुक जाते हैं  हमारा स्व विलीन हो जाता है  होते हैं हम हिस्सा सिर्फ उस विश्वजनीनता के  जिसमें है सब समाया  तेरा संसर्ग कराता है मुझे  एकात्मता का एहसास  उस ब्रह्मांडीय रति से  जिसमें लीन है समस्त समष्टि  जल थल न

इस सप्ताह मेरी कवितायें लद्दाख की पहाड़ियों के इर्द-गिर्द घूमती रहीं, इसके अंतिम कड़ी के रुप में प्रस्तुत है यह कविता जो इन पर्वतों से संवाद के रुप में है | आप माने न माने ये पहाड़ियाँ बार बार मेरे लिये उतनी ही सजीव हो उठती है जितना कोई शरीरधारी और फिर होती हैं उससे घंटों बातें ..........

चित्र
मानव और पर्वत के बीच एक संवाद महाबोधी ध्यान आश्रम की सेब और खूबानियों की शाखाओं के नीचे बैठी मैं  तकती हूँ  दूर अनिमेष आँखों से चलती हवाओं और चिड़ियों की चहचहाहट के सिवाय कुछ भी नहीं आसपास मई महीने की धूप लद्दाख की ठंड में शरीर को बड़ा सकून दे रही  सामने है वृक्षविहीन नुकीली चट्टानों वाली पहाडियाँ जैसे मुझसे कुछ कहती दो पहाड़ियों के बीच की गहराई मुझे उसके चेहरे की झुर्रियों सी लगती है कितना बुढ़ा होगा यह पहाड़  हम जैसे कितने मानवों को देखा होगा उसने कहीं वह मुझ पर हँस तो नहीं रहा मेरे ध्यान प्रयासों को देख कर या फिर रो तो नहीं रहा यह सोच कर कि तेरा भी होगा वही हश्र जो हुआ अनगिणत मानवों का बुद्ध से मानव विरले होते हैं जो मरते नहीं उस सा महामानव बनने की क्षमता कहाँ तुझ से तुच्छ प्राणी में | अब मैं कैसे चुप रहती कह बैठी उससे ठीक है माना मैं हूँ तुच्छ पर तुमतो सदियों से अडिग आसमान को छूते खड़े हो तेरा भी तो हो रहा क्षरण तेरे अंग टूटे बिखड़े पड़े हैं चारों

लद्दाख का भ्रमण जैसे किसी दूसरी दुनियाँ में पहुँचने जैसा है और वहाँ प्राप्त हुये अनुभव नितांत अलग और पाकीजा,बहुत कुछ ऐसा जो पहले कभी न देखा और महसूस किया हो .......

चित्र
लद्दाख यहीं आ कर देखा मैं ने  आसमान का असली नीला रंग  यहीं आ कर देखा मैं ने  इतने ऊँचे पर्वत जो आसमां को भी छोटा बना दे  यहीं आ कर देखा मैं ने  असीम, अटूट, दिव्य शान्ति  जो मन की बेचैनी को चैन की नींद सुला दे  यहीं आ कर देखा मैं ने  निश्छल, निर्मल, पवित्र,अनछुये बर्फ से ढँकी चोटियाँ  जो तपस्वी की भाँति अपना आशीर्वाद बरसा रहा चहुँ ओर  यहीं आ कर देखा मैं ने  निर्झर, शीतल, सुगंधित हवाएँ  जो फैलाती हैं अपने चारों ओर असीम आनंद की लहरें  यहीं आ कर देखा मैं ने  निर्जन पर ऊर्जान्वित, जीवंत पहाड़ियाँ  जो निरंतर फैलाती हैं ऊर्जा का संवेग और कंपन  यहीं आकर देखा मैं ने  फूलों में दुनियां के असली रंगों को  जिसमें सागर की नीलिमा भी है, सुगंध की गहराई भी  यहीं आकर देखा मैं ने  पहाड़ों पर फैली बादलों की घटाएँ  जो विलीन कर दे धरती आसमान की दूरी  और बना दे दोनों को एक ।          ......मुकुल अमलास 

हाल ही में मैं ने अपना कुछ समय लेह और लद्दाख में बिताया| लद्दाख की पहाड़ियाँ जैसे कुछ कहती हैं , वहाँ की नीरवता में भी एक गूँज है पर इसका अनुभव वही कर सकता है जिसने आबादी के कोलाहल से दूर उन पहाड़ियों के सान्निध्य में कुछ समय बिताया हो | मेरा अनुभव तो यही है कि जैसे प्रकृति वहाँ अपने निश्छल स्वरुप में बिल्कुल हमारे पास होती है और उसका सामीप्य हर बार एक नया अनुभव दे जाती है ..........

चित्र
मैं और लद्दाख की पहाड़ियाँ लद्दाख की पहाड़ियों की तलहटी में बैठी मैं तकती हूँ चारों ओर इस निसर्ग की खुबसूरती को समेट लेना चाहती हूँ अपनी आँखों में | चट्टानों के पीछे आसमान कितना पास लगता है और उस चोटी के पीछे चाँद कितना करीब बस हाथ उठाओ और छू लो उसे कितना स्वच्छ , नीला आसमान | जी करता है जज्ब हो जाउँ यहीं इन घाटियों में इन रेतों और हवाओं में मिटा दूँ अपना वजूद शरीर का रेशा रेशा बिखड़ जाये इन वादियों में सब आयें मुझे ढूँढ़ने दें आवाज बार-बार और मैं इक छोटी सी बच्ची सी खिलखिलाती हुई अचानक निकल आऊँ चट्टानों के पिछे से और कर दूँ सब को अचंभित |   हर बार जब भी देखती हूँ इन पहाड़ों को आते हैं ऐसे ही विचार हरबार वो नये-नये रुप में आता है मेरे सामने हर बार होता है उसका सौंदर्य अलग या तो वो खुद बच्चा बन जाता है या मुझे बच्चा बना जाता है |  

प्रकृति हर पल कुछ सीख दे रही है और हम हैं कि आँखें मुँदे बैठे हैं, इधर उधर बिखड़ी चट्टानें भी कितना कुछ सिखा जाती है बस शर्त है कि हम उससे तादात्म भर जोड़ लें, मैं ने कोशिश की तो ये कविता उतर आई ..........

चित्र
             संतुलन और संबोधी             बुद्ध के चरणों और निसर्ग की गोद में             लद्दाख की पहाड़ियों और घाटियों के बीच             आ बैठी हूँ मैं सांसारिक कोलाहल से दूर             जहाँ है सिर्फ सनसनाती हवाओं की आवाज             चिड़ियों की चहचहाहट , ध्वजाओं की फड़फड़ाहट ,             घंटियों का नाद , निस्तब्धता का स्वर और शांति             चारों ओर काली , भूरी , नीली पहाड़ियों की श्रृंखलायें             और सबके पार सफेद , शुभ्र , बर्फ से ढ़ंकी चोटियाँ             जो एक के उपर एक पड़े हैं थिर संतुलित             सिखना है मुझे भी इन पत्थरों से बहुत कुछ             साधना है संतुलन तन और मन में             सुख और दुखः में             संसार और अध्यात्म में             जीवन और मृत्यु में             और जाना है उस मार्ग से आगे             जिसके आगे कोई मार्ग नहीं, राह नहीं             है सिर्फ एक ही बोध             संबोधी |