हाल ही में मैं ने अपना कुछ समय लेह और लद्दाख में बिताया| लद्दाख की पहाड़ियाँ जैसे कुछ कहती हैं , वहाँ की नीरवता में भी एक गूँज है पर इसका अनुभव वही कर सकता है जिसने आबादी के कोलाहल से दूर उन पहाड़ियों के सान्निध्य में कुछ समय बिताया हो | मेरा अनुभव तो यही है कि जैसे प्रकृति वहाँ अपने निश्छल स्वरुप में बिल्कुल हमारे पास होती है और उसका सामीप्य हर बार एक नया अनुभव दे जाती है ..........
लद्दाख की
पहाड़ियों की तलहटी में बैठी मैं
तकती हूँ चारों
ओर
इस निसर्ग की
खुबसूरती को
समेट लेना चाहती
हूँ अपनी आँखों में |
चट्टानों के पीछे
आसमान कितना पास लगता है
और उस चोटी के
पीछे चाँद कितना करीब
बस हाथ उठाओ और
छू लो उसे
कितना स्वच्छ, नीला आसमान |
जी करता है जज्ब
हो जाउँ
यहीं इन घाटियों
में
इन रेतों और
हवाओं में मिटा दूँ
अपना वजूद
शरीर का रेशा
रेशा बिखड़ जाये इन वादियों में
सब आयें मुझे ढूँढ़ने
दें आवाज बार-बार
और मैं इक छोटी
सी बच्ची सी
खिलखिलाती हुई
अचानक निकल आऊँ
चट्टानों के पिछे
से
और कर दूँ सब को
अचंभित |
हर बार जब भी
देखती हूँ इन पहाड़ों को
आते हैं ऐसे ही
विचार
हरबार वो नये-नये
रुप में आता है मेरे सामने
हर बार होता है
उसका सौंदर्य अलग
या तो वो खुद
बच्चा बन जाता है
या मुझे बच्चा
बना जाता है |
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