इस सप्ताह मेरी कवितायें लद्दाख की पहाड़ियों के इर्द-गिर्द घूमती रहीं, इसके अंतिम कड़ी के रुप में प्रस्तुत है यह कविता जो इन पर्वतों से संवाद के रुप में है | आप माने न माने ये पहाड़ियाँ बार बार मेरे लिये उतनी ही सजीव हो उठती है जितना कोई शरीरधारी और फिर होती हैं उससे घंटों बातें ..........






मानव और पर्वत के बीच एक संवाद

महाबोधी ध्यान आश्रम की
सेब और खूबानियों की शाखाओं
के नीचे बैठी मैं तकती हूँ 
दूर अनिमेष आँखों से
चलती हवाओं और चिड़ियों की चहचहाहट
के सिवाय कुछ भी नहीं आसपास
मई महीने की धूप लद्दाख की ठंड में
शरीर को बड़ा सकून दे रही 
सामने है वृक्षविहीन नुकीली चट्टानों वाली पहाडियाँ
जैसे मुझसे कुछ कहती
दो पहाड़ियों के बीच की गहराई
मुझे उसके चेहरे की झुर्रियों सी लगती है
कितना बुढ़ा होगा यह पहाड़ 
हम जैसे कितने मानवों को देखा होगा उसने
कहीं वह मुझ पर हँस तो नहीं रहा
मेरे ध्यान प्रयासों को देख कर
या फिर रो तो नहीं रहा
यह सोच कर कि
तेरा भी होगा वही हश्र
जो हुआ अनगिणत मानवों का
बुद्ध से मानव विरले होते हैं
जो मरते नहीं
उस सा महामानव बनने की क्षमता कहाँ
तुझ से तुच्छ प्राणी में |
अब मैं कैसे चुप रहती
कह बैठी उससे
ठीक है माना मैं हूँ तुच्छ
पर तुमतो सदियों से अडिग
आसमान को छूते खड़े हो
तेरा भी तो हो रहा क्षरण
तेरे अंग टूटे बिखड़े पड़े हैं चारों ओर
दिख रहे हैं मुझे चट्टानों के बड़े-बड़े टुकड़े
और रेतों के छोटे-छोटे कण
क्या तुमने अमरत्व को पाया ?
इन्हीं शिलाओं पर बैठ
खुल गये कितने मानवों के ज्ञान चक्षु
पर तू रहा यूँ ही खड़ा निरा जड़, निर्जीव
फिर तू कैसे फैसला करेगा मेरा
हाँ मानती हूँ मैं तुझे एक गवाह
यहाँ की हर घटनाओं का
पर मौन, मूक रहा है तू
रहेगा सदा
फिर तेरी गवाही का अर्थ क्या है !
तू संवाद बना मुझ से
बता, कुछ कह
कि बैठूँ मैं किस पत्थर पर तेरे
किस मुद्रा में,
करूँ कौन सी साधना
सांसों की कौन सी विपस्ना
कि मुझे भी दर्शन हो जाये
उस अनित्य की
तो मानूँ तुझे
ध्यानस्थ सन्यासी इस तपोभूमि का
वरना मुझ में और तुझ में अंतर क्या है
तू खड़ा निरुद्देश्य, एक जड़ निर्जीव पर्वत
मैं मानव एक चेतन, सजीव
पर दिग्भ्रमित प्राणि |



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