प्रकृति हर पल कुछ सीख दे रही है और हम हैं कि आँखें मुँदे बैठे हैं, इधर उधर बिखड़ी चट्टानें भी कितना कुछ सिखा जाती है बस शर्त है कि हम उससे तादात्म भर जोड़ लें, मैं ने कोशिश की तो ये कविता उतर आई ..........
संतुलन और संबोधी
बुद्ध के चरणों और निसर्ग की गोद में
लद्दाख की पहाड़ियों और घाटियों के बीच
आ बैठी हूँ मैं सांसारिक कोलाहल से दूर
जहाँ है सिर्फ सनसनाती हवाओं की आवाज
चिड़ियों की चहचहाहट,ध्वजाओं की फड़फड़ाहट,
घंटियों का नाद,निस्तब्धता का स्वर और शांति
चारों ओर काली, भूरी, नीली पहाड़ियों की
श्रृंखलायें
और सबके पार सफेद,शुभ्र,बर्फ से ढ़ंकी
चोटियाँ
जो एक के उपर एक पड़े हैं थिर संतुलित
सिखना है मुझे भी इन पत्थरों से बहुत कुछ
साधना है संतुलन तन और मन में
सुख और दुखः में
संसार और अध्यात्म में
जीवन और मृत्यु में
और जाना है उस मार्ग से आगे
जिसके आगे कोई मार्ग नहीं,राह नहीं
है सिर्फ एक ही बोध
संबोधी |
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