शब्दातीत

 

शब्दातीत

कुछ लिखते या कहते 
निरंतर उत्सृष्ट होते मेरे शब्द 
शब्दों की एक दुनियां 
हर शब्द से निकलते अर्थ 
शब्दों में ढूँढी जाती हूँ मैं 
मतलब निकालते लोग 
एक अपराधबोध के भंवर में 
डुबती-उतराती मैं 
अचंभित होती हूँ 

क्या सच मैं वही हूँ 
जो ये शब्द कहते हैं 
या इससे इतर भी कुछ 
जो मेरी आँखें कहती हैं 
मेरी शब्दातीत भावनाएं 
जिन्हें मैं अभिव्यक्त नहीं कर पाती 
मेरी उँगलियों के पोरों की छुअन 
मेरे मुस्कान की तासीर
या आँखों से ढुलके हुए आँसू 
मेरे ही तो हिस्से हैं 
मेरे प्राणों का एक अंश 
 उनका महत्व क्यों नहीं 

डर लगने लगा है 
शब्दों की इस दुनियां से 
जुड़ना चाहती  
सिर्फ भावों, संवेदनाओं के तंतुओं से 
होना चाहती 
बोधगम्य बिना शव्दों के 
जीना चाहती 
उस दुनियां में जाकर 
जहाँ जीया जाता है 
बिना भाषा और स्वर के 
अपने सत्य स्वरूप के साथ 
तरुओं की भांति 
मौन परंतु
कण-कण से स्पंदित, मुखरित ।

             ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,मुकुल कुमारी अमलास



( चित्र गूगल से साभार )

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