एक स्त्री अपने घर के लिये कितना कुछ देती है क्या इस बात के लिये हम उसे कोई श्रेय देते हैं ! थकी हारी हुई स्त्री अपनी प्रतिभा को कुंठित करती घर को स्वर्ग बनाने में जुटी रहती है। हर हालत में वह सृजन ही करती है लेकिन इस रचना को क्या संसार का उचित सम्मान मिल पाता है !

स्त्री और कविता




आकाश में उमड़ते घुमड़ते बादलों की भाँति
मस्तिष्क में विचारों की बदलियाँ
बेचैन कर रही है मुझे अभिव्यक्ति के लिये
पर मेरे हाथों में कलम की जगह चाकू है
बहुत तेजी से हाथ चल रहे हैं मेरे सब्जियों पर
मेरी रसोई अभी अभी दाल में
लगाये गये बघार से महक रही है
वहीं मन में एक सुंदर सा विचार कौंधता है
कहीं भूल न जाऊँ
काश मैं इसे लिख पाती
पर अब वो आते होंगे
खाना तैयार नहीं हुआ है
घर के और ढेरों काम बाकी हैं
पसीने की गंध और मसाले की महक
में डूबा शरीर लिये
मैं घर भर में घुम रही हूँ
जल्दी जल्दी काम निपटाने में लगी हूँ
शायद आज थोड़ा समय मिल जाये
और लिख ही डालूँ उस अधूरी कविता को
जो कब से मेरी फुरसत का इंतजार कर रही है
पर घर, बच्चे, पति, सास, ससुर
की जरूरतों को पूरा करते करते
शाम होते होते मैं थक कर लस्त-पस्त हो जाती हूँ
फिर मेरी कविता वैसी ही अस्त-व्यस्त सी
रह जाती है जैसी खुद मैं 
लेकिन अपने को कुंठित करती
अपने घर को शाम होते होते
एक कविता की भांति सुंदर रूप जरूर दे देती हूँ 
रचनकार तो वही रहता है 
कैनवास बदल जाता है | 

                मुकुल कुमारी अमलास 


( चित्र गूगल से साभार ) 

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