जब हम उदास होते हैं तो प्रकृति की सुंदरता को भी नकारात्मक रुप में ग्रहण करते हैं , इसी मानसिकता को उकेरती एक कविता प्रस्तुत है........

मौसम क्या सचमुच बदलता है ?



नदिया के जल पर
नृत्‍य करती सूरज की किरणें
वैश्या सी अपनी
चाँदी के घुंघरू चमकाती
अठखेलियाँ करती सब को रीझा रही है
पेड़ों पर बैठी चिड़िया की चिंतातुर स्वरलहरी
वातावरण को गमगीन बना रही है
घान की कटाई के बाद
खेतों में पड़े घान के ठूँठ 
अपनी जवानी को याद कर
रोते नजर आ रहे हैं 
दूर -दूर तक सिर्फ 
ऊसर जमीन 
कड़ी घूप में झूलसते खड़े पेड़ 
आसमान का नीलापन
जैसे कुछ कम हो गया है
घूसर मिट्टी का रंग कुछ अधिक धूसर हो गया है
दूर कहीं एक चरवाहा अपने मवेशियों संग
निर्गुण का राग अलापता
भटक रहा है
मेरी नजरें भटक रहीं हैं
छत की मुंडेर से बाहर
ढ़ूंढ़ने के अपने अथक प्रयासों में
एक भी ऐसा दृश्य जो
मन को बहला दे
सब कुछ इतना फीका क्यों है ?
मौसम क्या सचमुच बदलता है !
या यह घटना  सिर्फ हमारे अंदर घटती है !

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