अहम् ब्रह्मास्मि



हर क्षण हर पल हृदय के पास
जब एक और हृदय धड़कता
तो हो जाती मैं पंखों से भी हल्की
कस्तूरी मृग की भांति मेरे अस्तित्व से
एक स्वर्गीय खुशबू निकलती रहती
डूबी रहती उसमें सराबोर
शरीर में एक तितली फड़फड़ाती
होता एहसास खुद का
एक कमल नाभ में बदल जाने सा
कभी वह अपने पांव फैलाता कभी हाथ
शरीर उस तनाव को झेलता
पर मन सीमाओं को तोड़
फैल जाता अनंत दिशाओं में
मेरे अंदर एक सृष्टि रची जा रही
मेरे शरीर का कण-कण गढ़ रहा उसे
होता एहसास एक सर्जक होने का
मेरे द्वारा धरती पर लाया जाएगा वह
झेलूंगी मैं प्रसव पीड़ा
पर मां बनने का गौरव
यूं ही तो नहीं मिलता
वह मेरी रचना होगी
मैं रचनाकार
मुझे लगता है इस सृष्टि को भी
रचा होगा जरूर किसी स्त्री ने
इस पुरुष प्रधान समाज ने
ब्रह्मा की कल्पना कर
कर लिया उसे अपने नाम
यह एक आदि छल था
धोखे में रखे गए हम सब आज तक
घोषणा करती हूं मैं आज
इस धरती पर जो भी नवीन आया
लाया गया स्त्रियों के द्वारा
हम ही हैं जननी इस ब्रह्मांड की।
--------- मुकुल अमलास --------

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