आज रक्षाबंधन के दिन बचपन की बड़ी याद आई, सावन मायके की याद दिला ही देता है, उन्हीं दिनों को समर्पित करती हूँ यह कविता ..........
अब तो सावन सूख गया है
बाबूल की गलियाँ थी बचपन की सखियाँ थी
मेंहदी लगी हाथों में हरी चुड़ियाँ कैसी सजती थी
पल-पल हम जीते थे अपने संग होते थे
खुशियों के सागर में लगाते हम गोते थे
बाबा का प्यार था अम्मा की गलबहियाँ थी
छोटा सा घर था लेकिन महलों सी खुशियाँ थी
चुन-चुन कर बागों से फूलें जो आतीं थीं
रोली और चंदन से थाली जो सजती थी
त्योहारों का मौसम था रिश्तों की बेला थी
भैया की कलाई पर राखी जब सजती थी
जीवन में कितना रंग था जीवन एक बगिया थी
रंगीन कलियों पर बैठी इंद्रधनुषी तितलियाँ थी
सखियों के संग पेड़ों पर झूले जब झूलते थे
कजरी की तानों पर तन-मन कैसे डोलते थे
अब तो सावन सूख गया है अपना घर जब से दूर हुआ है
मेघा जब घिर कर आती है जियरा में अगन लगाती है
बीते दिन याद दिलाती है मेरी अखियाँ भर-भर आती है
झर-झर जब आँसू बहते हैं मनुआ बोझिल कर जाती है |
..... मुकुल कुमारी अमलास .....
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