उऋण

उऋण अब जीवन लगता पूर्ण पाती उसमें जिंदा खुद को वही रंग वही रूप वही संवेदना वही करुणा वही रिश्तों की परवाह वही जिंदगी की समझ वही सुरुचि वही अभिरुचि मैं रहूँ न रहूँ धरती पर कहाँ है कोई कमी जीवन का सातत्व अब दिखता स्पष्ट बेटी बड़ी हो गई संभाला उसने घर आँगन फिर बना एक आशियाना घरौंदे में गूँजा जीवन संगीत संभाल लेगी सब व्यवधान सजा देगी सारे अरमान विश्वास थीर हो रहा मुक्त हूँ अब जीवन मोह से चुक गया स्त्री होने का कर्ज़ बेटी माँ को कर देती उऋण लोक-परलोक के सारे ऋणों से। ..............मुकुल अमलास (चित्र गूगल से साभार)