हर मौसम का अपना मिजाज होता है, अपना अपना गुणधर्म लिए ये हमें कभी आह्लादित करता हैऔर कभी खिन्न । सर्दी का मौसम मेरे ख्यालों में कैसे उभरता है देखिये इन पंक्तियों में ............
शीत दुल्हन
शीत ऋतु लगाती मुझे
एक ऐसी ग्रामीण दुल्हन
जो हजार हजार परदों में रहती
साला-दोसाला ओढ़े हुए
घर के अंदर
दबी-ढकी नई-नवेली बहू सी
सब से शर्माती
बच कर, संभल कर चलती
क्योंकि पता है
सब की नजर है उसी पर
बीती रात गये
जब पति कोहबर में आता
उसे बाँहों में कस लेता
वह सकुचाती, सिहरती हुई
उसकी बाँहों की गर्मी में छुपी रहती है
सुबह सर पे है झिलमिल चुनर
चेहरा थोड़ा सा झलकता
थोड़ा सा छुपा रह जाता है
जैसे कुहासा छाया हो चारों ओर
और धरती रूपी दुल्हन के चेहरे पर
झिलमिल सा पर्दा पड़ा हो
दिन में पहरुआ पति के कहने पर
आँगन में निकलती है
रोशन चेहरा लिये
सूरज की भाँति
लुकाछिपी करते हुये
अपने रूप की गर्मी से सब को मुग्ध कर
फिर शर्माती हुई
तुरंत ही
अपने घूँघट में छुप जाती है
शाम रूपी सितारों जड़ी आँचल ओढ़े ।
--- मुकुल अमलास
(चित्र गूगल से साभार)
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