मन का क्या है वह तो कुछ भी कल्पना कर सकता है जैसे शाम को सांवली परी के रुप में देखना , वो जब आती है तो एक जादू सा तिर जाता है चारों ओर और फिर क्या होता है देखते हैं इन पंक्तियों में ...............
शाम की सांवली परी
शाम की सांवली परी आने को है
दिन ढ़लने को है रात होने को है
दिन ढ़लने को है रात होने को है
अब मद्धम हुई दिन की रोशनी
रात की दुल्हन ने ओढ़ी काली ओढ़नी
रात की दुल्हन ने ओढ़ी काली ओढ़नी
बड़ी नाजुक सी है बड़ी अल्हड़ सी है
अपने में ही खोई बड़ी गुमसुम सी है
होठों में छुपे न जाने कितने राज हैं
सीने में दबी बड़ी तिलस्मी आग हैं
बड़े अंदाज से डग बढ़ाती है वो
बड़े हौले सबको खुद में समोती है वो
चाँद की बड़ी सी बिंदी माथे पे लगा
तारों की झिलमिल सी आँचल सजा
धीरे धीरे जब गुनगुनाती है वो
कोई मीठी सी धुन जब बजाती है वो
बूढ़े बच्चे सभी को प्यारी सी लोरी सुना
अपने आगोश में सबको सुलाती है वो
चारों ओर जब छा जाती निस्तब्धता
बड़े हौले हौले अपने कदम को उठा
दिन निकलने से पहले मुँह को छुपा
दिन भर के लिये रात की दुल्हनियां
न जाने फिर कहाँ चली जाती है वो ।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें