कभी कभी जीवन में सबकुछ बड़ा ही बेढब और बेतरतीब लगता है , जीवन की डोर उलझती ही चली जाती है । खुद जीवन ही एक पहेली सी लगाने लगती है ।अपना आपा ही बेगाना सा नजर आने लगता है ।कुछ है जो हम ढूँढ रहे हैं और वह हमसे और दूर होता जाता है । क्या हर व्यक्ति के साथ ऐसा होता है ?

जिंदगी और द्वंद्व

दिन कटोरी सा खाली खाली
रातें वीरान डगर सी सूनी-सूनी
जिंदगी है कि लंगड़े की पांवों सी घिसट रही है
हर सपना टूटे हुए कांच सा बिखर जाता है
झुलसती दोपहर की लंबी बियाबानी
नकाबिले बर्दास्त पसीने की चिपचिप
टूटी फूटी सड़कों सी उबड़ खाबड़
विचारों  का ताँता हिचकोले खा रहा है
कोई तारतम्य नहीं उनमें
रात के अँधेरे में बनती बिगड़ती
सायों की तरह कभी बड़ा कभी छोटा
एक दूसरे में गड्ड मड्ड होते हुये
पानी में पड़ते रोशनी की तरह
कभी पारदर्शी प्रतिबिम्ब
कभी पानी सा ही हिलना और फैल जाना
कुछ भी तो थिर नहीं
न वक्त, न दुनिया, न मानव का मन
थिर की तलाश में भटकता
यह सम्पूर्ण ब्रह्मांड
मैं भी तो इसी तलाश का एक हिस्सा हूँ
मकड़ी के जालों सा
यहाँ वहाँ लटकते मेरे द्वंद्व 
यह अस्तित्व हमें झुलाता क्यों है
इतना रुलाता क्यों है
क्या अब कब्र में ही इन सवालों के
जबाब हम पायेंगे
या जिंदगी भी अपने से टकराने वालों
और टिक कर खड़े होने वालों
के सामने खुलती है
दूध का दूध पानी का पानी कर जाती है ।

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